पुराने दौर में एक बार बजट आने पर लोगों को अंदाजा हो जाता था कि किस वस्तु की कितनी कीमत है। पर आजकल तो बजट के बाद भी नये टैक्स रोज़ाना लगा दिये जाते हैं। ज़रूरी चीज़ों के दाम बाज़ार में आसमान छू रहे हैं, जबकि उगाने वाले को उसकी लागत से भी कम मूल्य मिल रहा है।
आज ख़बर है कि प्याज़ के उचित दाम न मिलने से प्याज़ उगाने वाले उसे सड़को पर फेंकने के लिये मजबूर हो गये हैं और कई जगह तो उन्होने फेंक भी दिए हैं जिससे कई वाहन सड़क पर फिसल भी गये। पर एक समय था जब प्याज़ ८०-१०० रुपये तक चले गये थे और रसोई से प्याज़ ग़ायब सा हो गया था। ऐसा हर रोज़ किसी न किसी ज़रूरी वस्तु के साथ हो जाता है। कभी प्याज़ तो कभी आलू टमाटर और दाल ने तो नीचे की तरफ ना देखने की क़सम खा ली है।
एक दिन था जब प्याज़ के भाव आसमान छू रहे थे। उस दौर पर है ये व्यंग्य-अभी तक तो आटे दाल के भाव ने ही परेशान किया हुआ था अब ये प्याज के भाव भी आसमान छूने लगे, प्याज के भाव क्या बढे की नेताओं की मौज लग गयी। उन्होंने चुनावी एजेंडा में शामिल कर लिया झट से। वोट के बदले नोट की जगह वोट के बदले प्याज़ हो गयी। टीवी चैनेलों में प्याज़ ही प्याज़ छा गया। उसकी पूरी इतिहास और भूगोल पर तप्सरे होने लगे कालाबाज़ारी और प्याज़ के सटोरियों की जीवन कथा टीवी पर बाँची जाने लगी। सरकार ने बढ़ती कीमतों का संज्ञान लेते हुए उसके निर्यात पर रोक लगा दी और आयात का प्रबंध करने लगी। कृषि मंत्री पर या अधिक बारिश पर या फिर कालाबाज़ारी पर तोहमत लगने लगी। विपक्ष ने प्याज कुछ सस्ते दामों पर जनता को मुहैया करने का उपक्रम किया।
अल्ला अल्ला खैर सल्ला किसी तरह प्याज़ के दाम ने एक पायदान नीचे कदम रखा तो टमाटर का रंग लाल भभूका हो गया। बेचारी घर की रानी क्या सब्ज़ी बनाये, न प्याज़, न टमाटर, पुराना ज़माना थोड़ी है जो प्याज़ न खाएं , अब तो उसकी बदबू खुशबू में बदल चुकी है और बिना टमाटर के सब्ज़ी ऐसी लगती है की जैसे उसे पीलिया हो गया हो। देखने में भी अच्छी नहीं लगती खाएं क्या?? अभी इनकी कमी से जूझ ही रहे थे की आलू ने भी नखरे दिखने शुरू किये १० रुपए से छलांग मार के एक दम ४०/५० प्रति किलो पर पहुँच गया। अब व्रत में तो खाए ही आलू जाते हैं, कोई सब्ज़ी नहीं बनती आलू के बिना, बच्चों को तो आलू ही पसंद आते हैं। कहाँ तो किसान सडकों पर फ़ेंक रहे थे, कहाँ आलू थोक में ५०रुपे किलो बिक रहा है। लेकिन मैं हैरान हूँ की जनता ने अभी तक शोर नहीं मचाया। विपक्ष ऐसे बैठा है जैसे उसे सांप सूंघ गया हो। और आलू अपनी बेकद्री पे ज़ार ज़ार रो रहा है। जब सस्ता था तो वैसे ही कोई मोल नहीं लगता था अब महंगा हुआ हूँ तो भी कोई शोर नहीं मचा रहा। क्या मेरी कोई अपनी औकात है या नहीं??? और गृहणी तो सोच रही है क्या अच्छे दिन ऐसे ही होते हैं।
—-ज्योत्स्ना सिंह !