अजय चौधरी।
राष्ट्रीय हरित अधिकरण को भारत की राज भाषा हिंदी समझ नहीं आती। एनजीटी ने ये साफ कर दिया है कि वो केवल अंग्रेजी में आई याचिकाओं पर ही सुनवाई करेगा। वो हिंदी जिसपर हम गर्व करते हैं, वो हिंदी जो दुनिया में दूसरी सबसे अधिक बोले जाने वाली भाषा है। वो हिंदी अब अपने ही देश में बेगानी हो गई है।
एक अनुमान के मुताबिक देश की 25 करोड आबादी में से भारत में लगभग 75 प्रतिशत लोग हिंदी बोल और समझ सकते हैं और केवल 10 प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी को समझते हैं। एक लोकतात्रिंक देश में जहां केवल 10% लोग ही अंग्रेजी को समझने वाले हैं वहां लोगों के हित के लिए बनाई गई कोई अधिकरण कैसे उनपर अंग्रेजी थोप सकती है। क्या लोग अपनी बोलने और समझने की भाषा में याचिका नहीं डाल सकते।
हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए सरकार की ओर से प्रयास किए जा रहे हैं और यूनेस्को की सात भाषाओं में हिन्दी पहले से ही शामिल है। मगर एनजीटी के सपष्टीकरण से अपने ही देश में हिंदी बेगानी हो गई। एनजीटी ने अपनी कार्यवाही के दौरान हिंदी पर प्रतिबंध लगाते हुए, यह बात साफ कर दी कि वह वादी जो उसके समक्ष व्यक्तिगत रूप से पेश होते हैं वह अपने दस्तावेज केवल अंग्रेजी में ही प्रस्तुत करें।
हरित पैनल ने कहा कि 2011 एनजीटी (चलन एवं प्रकिया) नियमों के नियम 33 के अनुसार अधिकरण की कार्यवाही केवल अंग्रेजी में ही होनी चाहिए। भले ही एनजीटी इसके लिए नियमों का हवाला दे रहा हो मगर ये नियम भी तो आपने ही बनाए हैं, बहार देश से तो कोई नियम बनाने और उन्हें लागू करने नहीं आया। सच तो ये है चाहे वो न्यायपालिका हो, सिसटम हो या अधिकरण सबने अपनी सुविधानुसार नियम बना रखे हैं। जनता सिर्फ और सिर्फ बेबस है।