प्रियदर्शन
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और ज़ी हिंदुस्तान चैनल में कार्यरत हैं)
एक तरफ़ फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग हैं और दूसरी तरफ़ हैं लालू यादव…जुकरबर्ग ने डाटा लीक केस में चार दिन बाद ग़लती के लिए माफ़ी मांग ली…सवाल है मार्क जुकरबर्ग ने ग़लती के लिए क्यों माफ़ी मांगी? क्या ज़रुरत थी ऐसा करने की? दूसरी स्थिति देखिए…लालू यादव को चारा घोटाले के चौथे केस में 14 साल की सज़ा हुई…लालू के पक्षकारों के तेवर देखिए…तेजस्वी यादव के अनुसार ये बीजेपी की साज़िश है…इसी तरह 23 मार्च की रात पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के बेटे कार्ति चिदंबरम जेल से ज़मानत पर छूटे…दिल्ली की तिहाड़ जेल से बाहर निकलकर उन्होंने विजयी मुस्कान बिखेरकर टीवी वालों के कैमरों को धन्य किया और आईएनएक्स मीडिया घोटाले की शर्म को चुल्लू भर पानी में चरणामृत बनाकर पी लिया!
अधिक पीछे जाने की आवश्यकता नहीं है…पीएनबी घोटाले के सूत्रधार नीरव मोदी और मेहुल चौकसी का उदाहरण लीजिए…हज़ारों करोड़ का बैंक घोटाला करके सीबीआई जांच में सहयोग से इनकार कर रहे हैं…हज़ारों करोड़ खाकर विदेश में मौज कर रहे हैं…इस कड़ी में ललित मोदी और विजय माल्या का भी नाम है जो भारत के क़ानूनी शिकंजे से बहुत दूर चले गए हैं! फिर अपने नज़दीक ही देखिए…दिल्ली-एनसीआर के तमाम बिल्डर्स का उदाहरण है…आम जनता की मेहनत की कमाई को सीमेंट-बालू बनाने वाले इत्मिनान में हैं…सुप्रीम कोर्ट की लताड़ के बावजूद न ख़रीदारों को पैसे लौटाते हैं और न फ्लैट बनाकर देते हैं…उत्तर प्रदेश की योगी सरकार नोएडा-ग्रेटर नोएडा के अधूरे बिल्डर प्रोजेक्ट्स को पूरा करवाने की कोशिश कर रही है…बिल्डर्स को बार-बार अल्टीमेटम दिया जाता है कि फ्लैट ख़रीदारों को मकान दें…लेकिन पुरानी डेडलाइन पार होती है और फिर नई बनती है…मतलब, बिल्डर्स के आगे सरकार बेबस है! अदालत की सख़्ती बेअसर है!
अब समझिए कि डाटा लीक पर जुकरबर्ग ने क्यों मानी ग़लती? जुकरबर्ग को पता है कि अमेरिकी क़ानून का शिकंजा कसा तो फेसबुक की गर्दन फंसेगी…जेल-जुर्माना होगा…फेसबुक की धंधेबाज़ी बंद होगी…अमेरिका का क़ानून नहीं देखेगा कि जुकरबर्ग का बटुआ कितना भारी है…जुकरबर्ग की राजनीतिक पहुंच कहां-कहां तक है…क़ानून की नज़रों में जुकरबर्ग मुजरिम होंगे तो उनका वही अंजाम होगा जो किसी आम अमेरिकी का होगा…यहां राजा-प्रजा वाली बात नहीं होगी…फिर सवाल ईमान का भी है…सबके लिए समान क़ानून, समान और सक्षम जांच की व्यवस्था ईमान भी जगाती है क्योंकि सामने वाला जानता है कि चाहे कुछ भी करो, पकड़ा जाना तय है…इसलिए जुकरबर्ग का ग़लती मानना क़ानून और जांच को लेकर उनका डर है क्योंकि उन्हें पता है कि फेसबुक की बेईमानी ज़रूर पकड़ी जाएगी और फिर क़ानून के मुताबिक सज़ा मिलेगी…
भारत की स्थिति देखिए…1996 में लालू यादव पर चारा घोटाले के आरोप लगे…इस बीच लालू केंद्र में किंगमेकर की भूमिका में रहे, बिहार के राजा रहे और फिर कद्दावर मंत्री भी…शुरुआत से चारा घोटाले के आरोपों को लालू यादव ने राजनीतिक साज़िश कहा… यहाँ मान लेते हैं कि अदालती कार्रवाई और जांच को लालू ने प्रभावित नहीं किया…मान लेते हैं कि उन्हें कानून और जांच पर पूरा भरोसा था…उन्हें लगता था कि वो निर्दोष हैं, फिर सवाल है कि अब तेजस्वी यादव क्यों कहते हैं कि लालू के साथ साज़िश हुई? क्या वो लालू को नादान और अनाड़ी साबित करना चाहते हैं? लोग जानते हैं कि लालू यादव राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं…किससे टकराना है और किसको पुचकारना है, लालू बखूबी जानते हैं…फिर लालू इतने नादान खिलाड़ी भी नहीं हैं कि सियासी शिकारियों के जाल में ख़ुद को फंसा लें…आख़िर लालू जैसा नेता अपनी राजनीतिक हत्या की सुपारी विरोधियों को कैसे दे सकता है? दरअसल, लालू जानते हैं कि उन्होंने जानवरों का चारा खाया है…चारे से मोटा कमाया है…लेकिन आरजेडी सुप्रीम लालू यादव कभी मार्क जुकरबर्ग नहीं बन सकते और हमें ऐसी उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए…इसमें दोष लालू का नहीं बल्कि हमारी व्यवस्था से उपजे संस्कारों का है…
इसी तरह, 23 मार्च की रात तिहाड़ जेल से बाहर आए कार्ति चिदंबरम के चेहरे पर ख़ुशी थी…जेल के बाहर कार्ति का उंगलियां विजय चिह्न बना रही थीं…कार्ति के चेहरे पर विजयी-मुस्कान क्यों? याद कीजिए, आईएनएक्स घोटाले की जांच और जेल जाने से पहले चिंदबरम बाप-बेटे कहते थे कि केंद्र सरकार साज़िशन फंसा रही है…बाप-बेटे की दलील लालू टाइप थी…ये ख़ूब जानते हैं कि क़ानून और जांच में साज़िश का रसायन कैसे घुलता है…इन्हें पता है कि क़ानून और जांच लचीले होते हैं, जो सत्ता के मिजाज़ से बदलते हैं, इसलिए कितना भी घोटाला कर लो, कुछ बिगड़ने वाला नहीं है!
लालू और चिदंबरम तो सत्ता के खिलाड़ी हैं लेकिन नीरव मोदी, राहुल चौकसी, ललित मोदी, विजय माल्या और बिल्डर्स कौन हैं? इनके लिए क़ानून और जांच का क्या मतलब है? घोटाला करने, धोखाधड़ी करने से पहले इन्हें क़ानून का डर क्यों नहीं हुआ? फिर चोरी-धोखाधड़ी पकड़े जाने पर सामने आकर क्यों नहीं ग़लती मानी और जांच में सहयोग किया? वजह एकदम साफ़ है – अपने देश में ईमान विलक्षण वस्तु है … ईमान किसी मंडी में भी नहीं मिलता कि ख़रीदा जा सके…ईमान जन्मजात भी नहीं होता…इंसान के विकास-क्रम में ईमान धीरे-धीरे पैदा होता है, जिसमें क़ानून के सख़्त दायरे में सिस्टम और जांच एजेंसियों की निष्पक्षता विकसित होती है…ये नियम भारत में लागू नहीं होता… हमारी क़ानूनी जटिलता बेईमानों को अवसर देती है और संगीन ग़ुनाह के बावजूद बचने की गुंजाइश रखती है … फिर जांच एजेंसियां तो हाड़-मांस वाले इंसानों का अड्डा हैं…सत्ता वाले उसकी जैसी प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं, वो वैसा ही मंत्रोच्चार करती हैं…इसलिए, भारत में न क़ानून से डरने की ज़रुरत समझी जाती है…न जांच से…यहां जो जितनी बेशर्मी और बेदर्दी के साथ बेईमानी कर ले, वो बहुत कम है और इसलिए हमारे यहां कोई जुकरबर्ग नहीं है!
“ये लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में सभी सूचनाएं लेखक द्वारा दी गई हैं, जिन्हें ज्यों की त्यों प्रस्तुत किया गया हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति दस्तक इंडिया उत्तरदायी नहीं है।”