अजय चौधरी
हमारा स्वदेशी अभियान चीन के समान से शुरु हो दिवाली के दियों पर आकर खत्म हो जाता है। हमें फिल्पकार्ट जैसी देशी कंपनी के विदेशी हाथों में जाने से भी कोई फर्क नहीं पडता। वैसे भी हमारी मेहनत विदेशी कंपनीयों के ही काम आती रही है। हमारे आईआईटी यहां इंजीनयर पैदा करते हैं और वो विदेश जा वहां की कंपनीयों और उन देशों की अर्थव्यवस्था को सुधारने का काम करते हैं।
ये सब कुछ वैसे ही चलता है जैसे गांव में से अपने बेहतर भविष्य और अच्छी शिक्षा के बहाने कुछ लोग निकल आते हैं और फिर जहां आते हैं वहीं के होकर रह जाते हैं। वो भले ही कितने आगे निकल जाएं लेकिन अपने गांव के उत्थान के लिए कभी कोई काम नहीं करते। कोई एक आद उदाहरण ऐसा पा जाए तो कह नहीं सकते।
हमारे गांव खाली हो चले हैं। वहां से शिक्षित लोग बेहतर भविष्य की तलाश में बाहर निकल चुके हैं और सम्मानित बडे बुजुर्गों की संख्या में साल दर साल कमी आई है। अब चौपाल पर हुक्के की गुडगुडाहट की जगह बीडी में सुट्टे लगाने वाले बुजुर्ग मिलेंगे। बीडी की तरह उनकी बातें भी अब ओच्छी होती जा रही हैं। गांव में युवाओं की जो फौज है उसे आवारगर्दी के अलावा शायद ही कोई दूसरा काम बचा है। क्योंकि कुछ करने की चाह रखने वाले वहां से बाहर निकलते जा रहे हैं। गांव में समाजिक भाईचारा खत्म होता जा रहा है। इसके पीछ बडा कारण ये भी है कि अब वो आदमी नहीं रहे जिनके लठ में जोर था।
इसी तरह शहरों की बात करें तो यहां के शहरों में से भी पढ़ा लिखा वर्ग अपने बेहतर भविष्य और कैरियर को देखते हुए विदेश चला जाता है। भारतीय की सबसे पहली पसंद अमेरिका है। वो चाहे तो अपने देश के काम आ सकते हैं। अपनी स्किल से अपने देश की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ा सकते हैं। खुद का फेसबुक और वाट्सएप्प बना सकते हैं। कुल मिलाकर भारत के बडे संस्थान विदेशों के लिए यहां सस्ती और अच्छी पौध तैयार कर रहे हैं और बाकी संस्थान बेरोजगारों की वो फौज तैयार कर रहे हैं जिनका उपयोग राजनीतिक पार्टियां धार्मिक उन्माद फैलाने में कर रही हैं।
हमारे कोर्स और किताबें पुरानी हो चुकी हैं, ये नए समय और तकनीक के हिसाब से फिट नहीं बैठते। दूसरा कॉलेजों में न तो कोई पढ़ना चाहता और न ही कोई पढाना। ऐसे में फौज बेरोजगार ही होगी। कुछ कंपनीयां युवाओं को हायर तो कर रही है लेकिन पहले छह महीने या साल भर तक उन्हें ट्रेनिंग देती है। तब जाकर वो कुछ करने योग्य बन पाते हैं। अगर ये ट्रेनिंग हमारे शिक्षण संस्थानों में ही दे दी जाए तो डायरेक्ट प्लेसमेंट की राह आसान हो सकती है।
दूसरी और सरकार ने शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता सुधारने के नाम पर स्वायत्ता देने का केंद्र सरकार ने फैसला किया है। कहा ये जा रहा है कि इससे उनमें गुणात्मक सुधार आएगा, वो अपने फैसले खुद ले पाएंगे और नई ईमारतों और कैंपस का निर्माण कर सकेंगे। इसके फलस्वरुप वो दुनिया के बेहतरीन विश्वविद्यालयों में शुमार हो जाएंगे। देश के 62 निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के शिक्षण संस्थानों को स्वायत्ता दे दी गई है। ये अपने अनुसार पाठ्यक्रम बदल सकेंगे और विदेशी शिक्षकों भी रख सकेंगे। ये काम आप नहीं कर सकते थे क्या? क्या एम्स मेडिकल क्षेत्र में नंबर वन नहीं है? आईआईटी से ऊपर देश का कोई प्राईवेट संस्थान जा सका है क्या?
इस नए फरमान का असर ये होगा की सरकारी उच्च संस्थान भी यूजीसी की निगरानी से हट जाएंगे। वो अपने अनुसार फीस तय कर सकेंगे। उन्हें अपना खर्च निकालने और लाभ कमाने का अधिकार मिल गया है। ऐसे में देश में सस्ती शिक्षा का सपना धाराशायी होता जा रहा है। अब वो लोग लडकीयों को विश्वविद्यालय की दहलीज तक नहीं भेजेंगे जो उनपर खर्च करना बेकार समझते हैं। देश का गरीब और मध्यम वर्ग लाखों रुपये की फीस भरने में असमर्थ है। ऐसे में वो वर्ग उच्च शिक्षा प्राप्त करने से वंछित रह जाएगा। आने वाले दिनों में शिक्षा ग्रहण करना सिर्फ पैसे वालों के बस की बात बनकर रह जाएगी। सरकार के फैसले से साफ है कि अपना संसाधन खुद जुटाओ, फीस बढ़ाओ, सीट बढ़ाओ। जो करना है करो। ऐसे में कन्या भ्रुण हत्या के मामले बढ़ ही सकते हैं। क्योंकि ऐसे लोगों पर एक और दबाव जो बढ रहा है। तो फिर सरकार के बेटी बचाओ और बेटी पढाओ अभियान के क्या मायने हैं। बेटियों के लिए आप शिक्षा तक मुहैया नहीं करा सकतें। इतने भारी भरकम बोझ के चलते बेटियां बचेंगी कैसे और आगे बढेंगी कैसे।
वहीं अब अमेरिका ने एच-4 विजाधारकों का परमिट खत्म करने का फैसला लिया है। ये विजा एच- 1 बी वीजाधारकों के जीवनसाथियों को दिया जाता है जो वहां नौकरी करने गए हैं। एच-4 का परमिट खत्म होने का सबसे अधिक असर उन भारतीय महिलाओं पर पडेगा जो अपने पति के साथ अमेरिका गई थी और अपनी प्रतिभा के दम पर वहां नौकरीयां कर रही हैं। अमेरिका का ऐसा करने के पीछे क्षेत्रिय बेरोजगारी जैसे कारण हैं। कुल मिलाकर अब विदेश में नौकरी करने की राह आसान नहीं होगी बेहतर यही होगा कि हम अपने यहां विकल्प विकसित करें। फिल्प्कार्ट ऐसे ही विकल्पों में से एक थी। हम गर्व से इस भारतीय स्टार्टअप का उदाहरण पेश किया करते थे। अब वो उदाहरण भी हमारे पास नहीं बचा। देख रहें हैं न आप लोग स्वदेशी बचाने वाले किस तरह चुप हैं? क्योंकि अभी वो विश्वविद्यालयोें का माहौल बदलने में व्यस्त हैं।
बेस्ट प्राइस के नाम से वालमार्ट पहले से ही भारत में है। सबसे पहले अमृतसर में स्टोर खोला था। 2007 में भारती एंटरप्राइज के सहारे एंट्री की थी। लेकिन भारत में मल्टी ब्रांड में 51% एफडीआई को ही मंजूरी है। सिंगल ब्रांड में 100% पर वालमार्ट के स्टोर में सिंगल ब्रांड के प्रोडक्ट्स नहीं होतें इसलिए उसे भारत में किसी न किसी के सहारे आना पड़ता है। खुद 100% भारत में कंपनी मौजूदा कानून के हिसाब से नहीं आ सकती। फ्लिपकार्ट के 77 प्रतिशत शेयर ही खरीदे हैं। इसे वालमार्ट कीपिछले दरवाजे से एंट्री माना जा रहा है और है भी। कानूनी पचेडे में भी पड़ सकती है इससे वालमार्ट। ऐसे विवाद से बचने के लिए वालमार्ट ने कंपनी का भारतीय स्टाफ ज्यों का त्यों रखने का फैसला किया है। कहा ये भी जा रहा है कि अमोजोन के बढ़ रहे भारतीय बाजार को देखते हुए वालमार्ट ने ऐसा किया है। अब अमोजोन को टक्कर देगा। क्या स्वदेशी फ्लिप्कार्ट एमोजोन को टक्कर देने की हिम्मत नहीं जुटा सकता था? क्या किसी भी चीज का निजिकरण और विदेशीकरण करना ही एकमात्र रास्ता है?