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Dastak India > Home > दस्तक स्पेशल > जानें: डॉलर के मुकाबले इतना क्यों गिर रहा है रुपया
दस्तक स्पेशलहोम

जानें: डॉलर के मुकाबले इतना क्यों गिर रहा है रुपया

dastak
Last updated: September 17, 2018 6:24 pm
dastak
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Rupee vs dollar
Photo Source- Google
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सुजाता यादव

पिछले कुछ दिनों से रुपये की कीमत डाॅलर के मुकाबले नीचे गिरने की खबर अखबारों की हेडलाइन बनी हुई है। रुपये का मूल्य डॉलर के मुकाबले तेजी से गिर रहा है, और आज रुपए की कीमत 72.46 रुपये के आसपास घूम रही है। रुपये की कीमत साल की शुरुआत में 64 के आस-पास थी। इस मुद्दे पर गहन चर्चा हो रही है कि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) को इसे लेकर क्या कदम उठाने चाहिए।

आइए जानते हैं, रूपये की वैल्यू घटने के क्या हैं कारण-

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सही कहा है कि इसके बाहरी कारण हैं। विशेष रूप से वैश्विक पूंजी अमेरिकी अर्थव्यवस्था में वापस आ रही हैं। ऐसा होना वास्तव में आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि कुछ समय से अमेरिकी अर्थव्यवस्था एक बहुत ही आकर्षक विकल्प बन गई है। कुछ महीने पहले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कॉर्पोरेट कर दरों में भारी कमी की घोषणा की थी। हाल ही में भी यू.एस. फेडरल रिजर्व ने भी ब्याज दरों में वृद्धि की है। वैश्विक निवेशकों के लिए अमेरिकी अर्थव्यवस्था  में बहुत से आसान रास्ते खोले जा रहे हैं।

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डॉलर में अन्य सभी मुद्राओं के मुकाबले भी तेजी से बढोतरी हुई है। उदाहरण के लिए, यह यूरो और पाउंड दोनों के खिलाफ बढ़ गया है। विकासशील अर्थव्यवस्थाएं पर आमतौर पर इसका सबसे ज्यादा असर होता है। क्योंकि निवेशक इन बाजारों से अपना हाथ खींच लेते हैं। उनके आर्थिक और राजनीतिक स्थिरता अपेक्षाकृत कम होती है। तुर्की और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों पर इसका असर भारत की तुलना में काफी अधिक हुआ है।

पेमेंट डेफिसिट भी है कारण

बहुत समय पहले, वो देश जो पेमेंट डेफिसिट मे जा रहे थे, उन्हें यह सलाह दी गई थी कि उनकी मुद्राओं को डिवैल्यू कर दे। इसका तर्क यह था कि अवमूल्यन विदेशी देशों में निर्यात की कीमत को कम करता है और अधिक कॉम्पिटिशन बनाकर निर्यात को बढ़ावा देता है। इसके साथ ही घरेलू अर्थव्यवस्था में आयात अधिक महंगा हो जाता है, जिससे आयात की मात्रा में कमी आ जाती है।

यह तर्क हमेशा काम नहीं करता है। उदाहरण के लिए, यदि कई देश एक ही समय में अवमूल्यन कर रहे हैं तो इन देशों में से कोई भी विदेशों में अपने निर्यात से लाभ नहीं उठा पाता है। भारतीय आयात की सूची में कच्चे तेल अब तक का सबसे बड़ा सामान है। चीन से आयात अब दुनिया के कुल आयात का दसवां हिस्सा है। लेकिन युआन( चीन की करंसी) ने डॉलर के मुकाबले भी कमी आ गई है। इसलिए इस बात पर विश्वास करने का कोई कारण नहीं है कि चीनी आयात पहले की तुलना में महंगा होगा।

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भारत के लिए अच्छी खबर यह है कि आरबीआई के पास विदेशी मुद्रा भंडार का एक बड़ा स्टॉक है इसलिए पेमेंट डेफिसिट, रुपये के मूल्य में लगातार गिरावट के लिए चिंता का मुख्य कारण नहीं है।

इसका आपके लिए क्या मतलब है?

रुपये में गिरावट का मतलब है माल और सेवाओं की कीमतें महँगी होना और साथ में विदेशों में घूमना भी अधिक महंगा होना। महँगाई के कारण आपका बजट बिगड़ सकता है। दूसरे पक्ष से देखा जाए तो इससे  घरेलू पर्यटन बढ़ सकता है।

रुपये के गिरने से घरेलू अर्थव्यवस्था पर क्या हैं प्रतिकूल प्रभाव-

-कच्चे तेल की उधार कीमत में बढ़ोतरी से पेट्रोलियम और डीजल की कीमतों में भारी वृद्धि हुई है।

 -डीजल की कीमत में बढ़ोतरी से ट्रान्सपोरटेशन की लागत में वृद्धि आती है जिससे खाद्य कीमतों में भी वृद्धि होती है।

-आयात करने वाली वस्तुओ पर इसका खास असर देखा जाएगा,  विशेष रूप से जिनका घरेलू  कोइ स्रोत नहीं हैं।

विशेषज्ञों के अनुसार रुपये को सुधारने के कुछ विकल्प-

ऐसी स्थिति में उचित नीति प्रतिक्रिया क्या हैं?  निश्चित रूप से, न तो सरकार और न ही आरबीआई बिना कोई एक्शन के रह सकती है। सरकार के लिए ऐसे में कई माडरेट लेकिन प्रभावी साधन उपलब्ध हैं।

पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क और वैट को कम करना-

उदाहरण के लिए, पेट्रोलियम उत्पादों की बढ़ती कीमतों के लिए सरकार दोनों पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क और  वैट को कम कर सकती है। हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा उत्पाद शुल्क बढ़ाया गया था जब कच्चे तेल की कीमतें कम थीं केवल टैक्स ज्यादा इकट्ठा करने के लिए। अब जब कच्चे तेल की कीमत बढ गई है तो केंद्र को निश्चित रूप से इसे कम करना चाहिए। राज्य सरकारों द्वारा वैट की दरों को भी कम किया जाना चाहिए । हालांकि सरकार अभी ऐसा नही कर रही है क्योंकि वो अपना नुक्सान कराने से बचना चाहती है।

एनआरआई मार्ग फिर से-

शायद सरकार के लिए सबसे अच्छा विकल्प गैर-निवासी भारतीयों (एनआरआई) से उधार लेना है। सरकार यदि विशेष एनआरआई बॉन्ड को फ्लोट कर उन्हे विदेशी मुद्रा के साथ खरीदने दे और कम से कम तीन साल का मैच्योरिटी पीरियड भी तो यह आसान हो जाएगा। यह तरीका आखिरी बार 2013 में अपनाया गया था जब रुपया तनाव में था। यह तब काम करता था और ऐसा कोई कारण नहीं है कि यह फिर से काम नहीं करेगा।

द हिंदू में छपे एक एक्सपर्ट के लेख के अनुसार उम्मीद है कि तूफान खत्म हो जाएगा और रुपये को जल्द ही एक संतुलन मिलेगा। निकट भविष्य में, रुपया 70 डॉलर के आस-पास आने की संभावना है। यह बहुत चिंता का कारण नहीं होना चाहिए क्योंकि अर्थव्यवस्था खुद को इसी के अनुरुप ढाल लेगी।

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