जाना ही था यदि प्रिय! तुमको
तो इस मन में आये क्यों थे ?
याद मुझे है, पहले-पहले
जिस आँगन में आप मिले थे।
सच कहती, मन की बगिया में
अरमानों के फूल खिले थे।
तरसाना था तो आंखों में,
काजल बनकर छाये क्यों थे ?
जाना ही था…….. थे।
वह दर्दीला गीत तुम्ही ने
ज़िगर थामकर मुझे सुनाया,
कैसे कहूँ सजन ! अनजाने
उसने नाज़ुक तार हिलाया।
क्यों अब ऐसी खामोशी है,
गीत मिलन के गाये क्यों थे?
जाना ही था…….. थे।
बोलो, ऐसी सुंदर छवि को
बेबस कैसे आज भुलाऊँ,
याद किसी की कैसे होती,
कैसे जग को आज बताऊँ ?
जो अब काँटे बन चुभते हैं,
ऐसे फूल खिलाये क्यों थे ?
जाना ही ता यदि प्रिय ! तुम को
तो इस मन में आये क्यों थे ?
आये क्यों थे ?
रचना- स्वर्गीय कवि प्रभुदयाल कश्यप ‘प्रवासी’
