होली का त्योहार पूरे देश में बड़े ही जोरों-शोरों के साथ मनाया जाता हैं, कहीं लठमार तो कहीं भस्म होली मनाई जाती है,हाल ही में उत्तर प्रदेश के वाराणसी में भक्तों ने बाबा विश्वनाथ के साथ भस्म से होली खेल पांच दिनों के महोत्सव की शुरुआत की। फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को रंगभरी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है, इस दिन काशी में बाबा विश्वनाथ के साथ भस्म से होली खेली जाती हैं, जिसके चलते बाबा भोलेनाथ का विशेष श्रृंगार किया जाता हैं। धर्म नगरी काशी में होली की शुरुआत काशी में बसने वाले सबके ईष्ट बाबा भोलेनाथ के साथ भस्म से होली खेलकर करते हैं, भस्म की होली काशी में महाश्मशान की चिता की भस्म से होली खेलकर इस त्योहार की शुरुआत की जाती है।
क्यों खेली जाती भस्म की होली-
हर साल की तरह इस साल भी रंगभरी एकादशी पर भक्तों ने नाचते-गाते जलती चिताओं, फिजाओं में उड़ते रंग-गुलाल के साथ भस्म होली का त्योहार मनाया, जहां चारों ओर तरफ मातम छाया रहता हैं, वहां साल में एक दिन ऐसा आता है जब महाश्मशान में होली खेली जाती है। रंगभरी एकादशी पर महाश्मशान में खेली जाने वाली इस अनूठी होली के पीछे एक प्राचीन मान्यता हैं, माना जाता है कि जब भगवान विश्वनाथ यानी भोलेनाथ मां पार्वती का गौना कराकर काशी पहुंचे तो उन्होंने अपने साथियों के साथ होली खेली थी, लेकिन वो श्मशान में बसने वाले भूत- प्रेत- पिशाच और अघोरियों के साथ होली नहीं खेल पाए थे. इसीलिए रंगभरी एकादशी से शुरू हुए पंचदिवसीय होली पर्व की अगली कड़ी में विश्वनाथ इन्हीं के साथ चिता-भस्म की होली खेलने महाश्मशान में आते हैं, जिसकी शुरुआत हरिश्चंद्र घाट पर महाश्मशान नाथ की आरती से होती है. इसके बाद पहले शोभायात्रा भी निकाली जाती हैं।
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किसने चलाई ये परम्परा-
इस अनूठे भस्म होली का आयोजन सबसे पहले डोम राजा परिवार के पवन चौधरी ने किया था।तब से ये सदियों पुरानी परंपरा चली आ रही है. बाबा विश्वनाथ और मां पार्वती का गौना कराने के बाद भूत-प्रेत और अपने सथियों के साथ मसान में होली खेलने आते हैं। काशीवासी यानी बाबा भोलेनाथ महाश्मशान को छूत-अछूत से परे नवजीवन से मुक्ति पाने का द्वार मानते हैं, यही वजह है कि रंगों की होली के पहले चिता-भस्म की होली में शमिल हो लेने मात्र से होली का आनंद कई गुना बढ़ जाता हैं।
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