Privatization Policy: रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत सरकार ने अपनी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के प्रति दृष्टिकोण में एक महत्वपूर्ण बदलाव किया है। 27 जनवरी, 2025 को प्रकाशित इस रिपोर्ट में बताया गया है कि अब सरकार का ध्यान निजीकरण की बजाय इन कंपनियों के वित्तीय पुनरुद्धार पर केंद्रित है।
नीतिगत बदलाव का बड़ा फैसला(Privatization Policy)-
नई दिल्ली ने नौ प्रमुख सरकारी कंपनियों के निजीकरण को स्थगित करने का फैसला किया है। इनमें मद्रास फर्टिलाइजर्स, फर्टिलाइजर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया, एमएमटीसी और एनबीसीसी (इंडिया) जैसी बड़ी कंपनियां शामिल हैं। हुडको को तो निजीकरण की प्रक्रिया से पूरी तरह बाहर कर दिया गया है। यह फैसला 2021 के महत्वाकांक्षी निजीकरण कार्यक्रम से एक बड़ा बदलाव है, जिसका उद्देश्य दूरसंचार और बैंकिंग जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में भी सरकार की भूमिका को कम करना था।
सरकारी कंपनियों को मिल रहा वित्तीय सहारा(Privatization Policy)-

निजीकरण की बजाय, सरकार अब कमजोर सरकारी कंपनियों को पुनर्जीवित करने के लिए बड़े पैमाने पर धन मुहैया करा रही है। पवन हंस को 230-350 मिलियन डॉलर की वित्तीय मदद दी जाएगी। यह हेलीकॉप्टर ऑपरेटर पुराने बेड़े और निजीकरण की चार असफल कोशिशों से जूझ रहा था। इस धनराशि का उपयोग बेड़े के आधुनिकीकरण में किया जाएगा।
राष्ट्रीय इस्पात निगम लिमिटेड (आरआईएनएल) को 1.3 बिलियन डॉलर का पुनरुद्धार पैकेज दिया गया है। कर्ज में डूबी इस स्टील निर्माता कंपनी के लिए यह राशि ऋण पुनर्गठन और परिचालन स्थिरीकरण में मददगार होगी।
एमटीएनएल का मामला(Privatization Policy)-

महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड (एमटीएनएल) के लिए सरकार ने 2024-25 के बजट में 80 अरब रुपये का आवंटन किया है। यह राशि कंपनी के बॉन्ड भुगतान के लिए दी जाएगी, क्योंकि कंपनी लगातार डिफॉल्ट की स्थिति में आ रही थी।
निजीकरण का अधूरा वादा-
मोदी सरकार के निजीकरण अभियान में बहुत कम डील सफल हुई हैं। एयर इंडिया की टाटा समूह को बिक्री जैसी कुछ बड़ी डील के अलावा, अधिकांश प्रमुख निजीकरण योजनाएं विफल रही हैं। भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड (बीपीसीएल) की बिक्री 2022 में खरीदार न मिलने के कारण रोक दी गई। शिपिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया और बीईएमएल का निजीकरण भूमि हस्तांतरण जैसे मुद्दों के कारण अटका हुआ है। आईडीबीआई बैंक में बहुमत हिस्सेदारी की बिक्री भी धीमी गति से चल रही है।
वित्तीय लक्ष्यों से दूर-
सरकार का 2024-25 का विनिवेश लक्ष्य 180-200 अरब रुपये था, जो लगातार छठे साल भी पूरा नहीं हो पाएगा। जनवरी तक केवल 86.25 अरब रुपये ही हिस्सेदारी बिक्री से जुटाए जा सके हैं।
नीतिगत बदलाव के कारण-

इस नीतिगत बदलाव के पीछे कई कारण हैं। सबसे बड़ी चुनौती कर्मचारी यूनियनों का विरोध है, जो नौकरियों के नुकसान से डरती हैं। कुछ बड़ी सरकारी कंपनियों का पुनर्गठन कर लाभांश आय बढ़ाने पर विचार किया जा रहा है। राजकोषीय घाटे के 2024-25 में घटकर जीडीपी का 4.9 प्रतिशत होने की उम्मीद है, जिससे विनिवेश को तेजी से आगे बढ़ाने की तत्काल आवश्यकता नहीं रह गई है।
ये भी पढ़ें- परिवार को बिना बताए नौकरी छोड़, आज बने 1,000 करोड़ की कंपनी के मालिक, यहां जानें ऋषि दास की सफलता की कहानी
चुनौतियां-
विशेषज्ञों का कहना है, कि वित्तीय सहायता से कंपनियां अल्पकालिक स्थिरता हासिल कर सकती हैं, लेकिन संरचनात्मक सुधारों के बिना यह चुनौतियों को केवल टालने जैसा होगा। जैसे-जैसे नई दिल्ली राजनीतिक दबावों और आर्थिक वास्तविकताओं के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रही है, उसके निजीकरण एजेंडे का भविष्य अनिश्चित बना हुआ है।
ये भी पढ़ें- FSSAI का बड़ा कदम, पतंजलि फूड के इस प्रोडक्ट को वापस लाने के दिए निर्देश