द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
आत्मकथा के तीन खंड छपवाने में प्रकाशकों को 85000₹ देने पड़े। अब थोड़ा नाम-वाम हो गया है तो छपवाने का मेरा पैसा लगना बंद हो गया है लेकिन प्रकाशक का पैसा तो लगता है। जो किताबें मैं पाठकों को भेजता हूँ, उन्हें मैं प्रकाशकों से खरीदता हूँ। मैं उन लेखकों के बराबर नहीं आया हूँ जिसे रायल्टी मिले, कोई रायल्टी आज तक नहीं मिली पर आप जानते हैं कि आशा पर आसमान टिका है।
लता दीदी का गाया फिल्म 'दुल्हन' (1974) का एक गीत है : 'आएगी जरूर चिट्ठी मेरे नाम की, सब देखना हाल मेरे दिल का रे लोगों, तब देखना।'
आत्मकथा लिखने में दस साल लगे। समय लगाया, दिमाग लगाया, पैसे लगाए, अब दोस्ती कैसे निभाऊं? पैसे और परिश्रम की ऐसी बर्बादी सहन नहीं कर पाता इसलिए सहयोग राशि का जिक्र बेशर्मी से कर देता हूँ। क्या करूँ, बनिया के घर में पैदा हुआ इसलिए हिसाबी-किताबी हो गया हूँ। एक बात और, मुफ्त में मिली किताब का कोई महत्व नहीं होता।
नूपुर शर्मा को बीजेपी से निष्काषित करना कितना सही कितना गलत?
(ये पोस्ट लेखक के फेसबुक अकांउट से ली गई है)