हम रंगों में बंट रहे हैं और हमने स्वामी विवेकानंद के साथ भी ऐसा ही किया है

Updated On: Nov 17, 2019 15:31 IST

Dastak

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अजय चौधरी

ajay chaudhary chief editor dastak india
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हम रंगों में बंट रहे हैं, हमने अपने अनुसार हर किसी के रंग तय कर लिए हैं, अब हमें कहीं भी भगवा दिखता है तो उसे हम किसी भी एक पार्टी से जोड लेते हैं। नीला भी हमने एक पार्टी को दिया हुआ है। हरा तो हमने एक मुल्क को ही दे दिया है।

लेकिन हमें इन रंगों से बाहर आकर सोचने की जरुरत है। भगवा और केसरिया में थोडा सा ही फर्क है, जो हमारे तिरंगे में है। अक्षय कुमार ने भी केसरी फिल्म में भी बडी शान से पहना है। हरा रंग किसानों का भी प्रतीक है, हम कैसे उसे एक पडोसी देश का मान लेते हैं? और नीला तो हमारी उस कलम का भी रंग है, जिससे हम सबसे ज्यादा लिखते हैं। फिर कैसे हम रंगों का निर्धारण कर उन्हें सिर्फ एक विचारधारा से जोड सकते हैं?

लेकिन ऐसा हुआ है और उस व्यक्ति को भगवे में बांधा गया है जिसका किसी पार्टी या उसकी विचारधारा से कोई लेना देना था ही नहीं। मैं बात स्वामी विवेकानंद की कर रहा हूं। मैं बीजेपी या उसकी विचारधारा या जेएनयू के छात्रों के साथ इस मामले में नहीं खडा हूं। मैं सिर्फ विवेकानंद के साथ खडा हूं। हां मैं साथ हूं जेएनयू के छात्रों के, लेकिन फीस बढाने संबधी मामले में। छात्र जीवन जिया है, उनकी जरुरतें और संघर्ष समझता हूं। हो सकता है कि फीस बढोतरी के विरुद्ध छात्र आंदोलन को दबाने के लिए ऐसा किया जा रहा हो। लेकिन जिसने भी विवेकानंद की प्रतीमा के नीचे भद्दे नारे लिखे। लिखने वाले जो भी थे अगर उन्होंने ये छात्र आंदलोन को दबाने के लिए नहीं लिखा तो उन्होंने जरुर ही रंग को देखकर लिखा। विवेकानंद की प्रतीमा पर ढकी प्लास्टिक का रंग देख वो उन्हें निश्चित ही भाजपा का मान बैठे। हां प्रशासन प्रतीमा लगवा रहा है, हो सकता है उसमें बीजेपी का हाथ हो, तो क्या हमें किसी की प्रतीमा का विरोध करना चाहिए और जिसकी प्रतीमा है उसका संबध बीजेपी से हो जाता है? कतई नहीं।

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क्यों हमें एक तरफ बैठना जरुरी है, या तो हम वामपंथी, कांग्रेसी हो जाएं या भाजपाई? इन सब में अपनी तरह की बहुत सारी कमीयां हैं, इसलिए हमें तराजू के दो पलड़ों के बीच वाले हिस्से पर ही बैठना चाहिए। ताकि सब बराबर नजर आ सके।

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बात ये है कि विवेकानंद के ज्ञान का हम बाल भी नहीं है, महापुरुष किसी भी धर्म या समाज में जन्म ले सकता है। हमें उसके चोले से नहीं उसके विचारों से उसकी पहचान करनी चाहिए। अमेरिका के शिकागों में भारत की शून्य का डंका बजाने वाले विवाकानंद से हम अच्छे से परीचित नहीं है, इसलिए हम उन्हें भी पक्षों और रंगों से जोड रहे हैं। स्वामी विवाकानंद का जन्म 1863 और मृत्यू 1902 में हुई। ये बताना इसलिए जरुरी है क्योंकि आरएसएस का जन्म सितंबर 1925 में हुआ। फिर उनके पहनावे का उस पार्टी और उसकी विचारधारा से क्या संबध है जिसको जन्म देने वाली आरएसएस ही स्वामी विवाकानंद के इस दुनिया से जाने के बाद अस्तित्व में आई। वो तो सन्यासी की वेशभूषा पहनते थे। तो क्या सारे सन्यासीयों को बीजेपी से जुडा मान लिया जाए?

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जेएनयू को बताना चाहिए कि स्वामी विवाकानंद सिर्फ तुम्हारे नहीं है, हम भी कैंपस में उनकी प्रतीमा के साथ उनके विचारों का स्वागत करते हैं। सरदार पटेल भी बीजेपी के न थे लेकिन उन्हें बीजेपी ने अपना लिया तो क्या हम मुंह मोड लें। जिन महापुरुषों को एक पार्टी चमकाए उसपर उस पार्टी का ही कब्जा मान हमें उनसे मुंह नहीं मोडना चाहिए। क्योंकि राजनीतिक दल महापुरषों को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं और लोगों की भावनाओं से खेलते हैं।

 

कोई राजनीतिक दल हरियाणा के रोहतक में सर छोटूराम, पश्चिमी उत्तरप्रदेश में चरण सिंह, पंजाब में भगत सिंह और गुजरात में सरदार पटेल की प्रतिमा लगवा दे, दलित बहुल इलाके में अंबेडकर की प्रतीमा लगवा दे तो क्या इन सब पर एक पार्टी और विचारधारा का अधिकार हो गया? इसलिए हमें रंगों से विचारधारा के निर्धारण से बचना चाहिए। मैं भी भगवा रंग से मिलते जुलते कुर्ते अक्सर डाल लेता हूं, इसका मतलब ये नहीं कि मैं किसी संघ की विचारधारा से जुड गया। ऐसे न तो हम कपडे पहन पाएंगे और न ही जी पाएंगे।

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