कल के अखबार में कोर्ट की यह टिप्पणी पढ़ कर कि नाबालिग यदि जुर्म करता है तो उसके माँ-बाप को सजा मिलेगी, मुझे बचपन में पापा से सुनी हुई कहानी याद आ गयी।
“एक चोर को जब सजा मिली तो उसने अदालत में अपनी माँ से मिलने की इच्छा जताई और जब वो उसके गले मिल कर रोने लगी तो चोर ने उसका कान काट लिया, सिपाहियों ने पूछा कि यह क्या कर रहे हो तो उसने कहा कि मैं आज जो हूँ वो अपनी परवरिश कि वजह से हूँ, बचपन में जब मैं कुछ चोरी कर के लाता था तो माँ नाराज़ होने की बजाये खुश होती। फिर मैं और बड़ी बड़ी चोरियां और जुर्म करने लगा, यदि वो बचपन में मुझे सजा देती या टोकती तो आज मुझे ये दिन न देखना पड़ता, चोर को नहीं चोर की माँ को मारना चाहिए।”
यह सच है बच्चों का पहला स्कूल उसका घर होता है और माँ- बाप और परिवार वाले पहले शिक्षक। घर में उसको कैसी परवरिश मिलती है, कैसे संस्कार दिए जाते हैं, इस पर उसका भविष्य निभर्र करता है।
आजकल माता- पिता बच्चों को बहुत लाड-प्यार से पालते है उनकी हर जायज़ नाजायज़ ज़िद पूरी करते हैं। ज़रा सा बड़ा होते ही उन्हें स्कूटर, मोटर साइकिल या कार की चाबी पकड़ा देते हैं। फैशन के चक्कर में लड़के दोस्तों और लड़कियों पर अनाप शनाप खर्च करते हैं। और जब खर्चे जेब खर्च से कहीं अधिक हो जाते हैं तो नयी उम्र के बच्चे चोरी डकैती और अन्य जुर्म करने लगते हैं। तेज़ रफ़्तार एक और कमज़ोरी होती है नयी उम्र की, जिसके चलते वो दुर्घटनाओं में लिप्त हो जाते हैं। बचपन में अच्छे संस्कार देने के साथ किशोरावस्था में भी ये आवश्यक है कि उन पर ध्यान दिया जाए। उनके दोस्त कैसे हैं, वो कहाँ जाते हैं, किस तरह बातचीत करते हैं, कौन से टीवी कार्यक्रम देखते हैं, कैसी फ़िल्में देखते हैं? इन सब की जानकारी रखना बहुत ही आवश्यक है। हाँ उन्हें बहुत कड़े बंधन भी नहीं रखने चाहिए। एक स्वस्थय संतुलन आवश्यक है बच्चों को आपकी और अपनी सीमाओं का ज्ञान होना आवश्यक है ताकि वो उतने ही पाँव पसारें जितनी चादर है। ये सही है की स्कूल, दोस्त और बाहर का वातावरण बच्चों पर अपना प्रभाव डालते हैं, पर घर से मिले संस्कार उन्हें कोई ही गलत कदम उठाने से रोक लेंगे।
—–ज्योत्स्ना सिंह !