अब मैं कोई बड़ा आदमी या नेता तो हूँ नहीं, जो सब मेरे मन की बात सुने या उन बातों को सुनाने के लिए विशेष इंतज़ाम किये जाएँ। पर मन तो है और उसमे बातें भी बहुत सी हैं तो मैं उन्हें कागज़ पर उत्तार देती हूँ या फिर फेसबुक पे डाल देती हूँ। कोई पढ़ के पसंद पर टिक कर देता है, कोई समर्थन में उतरता है तो कोई कुछ बुरा लिख देता है जो उसके मन की बात होती है।
आज कल के समाचार पढ़ कर, टीवी पर देख कर या स्वयं अनुभव कर के मेरे मन में भी बहुत सी बातें आती हैं।
आज जाम पर मन की बात करूंगी —
एक ज़माना था सड़कें संकरी थी, वाहन कम थे, हम पैदल या साइकिल पर या रिक्शे पर आराम से स्कूल, दफ्तर या अपने दोस्तों के घर पहुँच जाते और वापिस भी आ जाते थे।
आज कल सड़कें ४ -६ लेन हो गयीं हैं। हर घर में ३-४ वाहन हैं तरह तरह के पर घर से निकलना और कही पंहुचना मुहाल है। सड़क पर कहीं भी निकल जाइये वाहनों की भीड़ मिलेगी, बम्पर से बम्पर और साइड से साइड भिड़ती हुई। उस पर तुर्रा ये कि जो थोड़ी बहुत बीच में जगह होती है। उसमें दो पहिया वाहन या तो सर्पिलाकार चलते हुए निकलते हैं, और यदि ट्रैफिक चल रहा हो तो वो आपके कान के पास से होते हुए सर्र से निकल जाते हैं। रोज़ घर से ऐसा लगता है, की जान हथेली पर रख कर निकलते हैं। लेकिन इस बात की कोई गारन्टी नहीं कि आप मंज़िल तक पहुँच जाएंगे या फिर समय से पहुँच जाएंगे। अभी कुछ दिन पहले मसूरी गए थे। रास्ते के जाम से निकल कर किसी तरह मसूरी जाने वाली सड़क तक पंहुचे, पर मसूरी जाने वाली सड़क पर इतना जाम था कि आगे जाने का विचार छोड़ दिया और देहरादून, हरिद्वार जाने का कार्यक्रम बना लिया। सहस्त्र धरा के लिए निकले तो जाम में वापिस लौटे, हरिद्वार में हर की पौड़ी तक तो पंहुच ही नहीं पाए। भीषण गर्मी और उमस में ढाई घंटे जाम में खड़े रहे और फिर सोचा कि घर क़ी ओर ही वापिस चल पड़ें, ताकि पंहुच ही जाए वापिस बुद्धू ही कहे चाहे कोई। कहते हैं कि मंज़िल से ज़्यादा सफर में मज़ा होता है। लेकिन हमारे प्यारे से भारतवर्ष में ऐसा नहीं है। सफर इतना कठिन और मंज़िल का तो अतापता ही नहीं। अब गुरुग्राम के जाम को ही लेलो १८ घण्टे का २५ मील लंबा जाम अभूतपूर्व था। उसने मिलेनियम सिटी की पोल तो खोली ही साथ में ये भी बता दिया कि सिर्फ नाम बदलने या लुभावन नाम रखने से ही कोई शहर अच्छा नहीं हो जाता। जाम का अर्थ, लोग भूखे प्यासे अपनी गाड़ियों में कैद थे, किसी को लघु शंका या दीर्घ शंका हो तो उसका कोई समाधान नहीं। साथ में बच्चे हों तो और हालत ख़राब। एम्बुलेंस में मरीज़ दम तोड़ देते हैं। बेचारी एम्बुलेंस लाख सायरन बजाये कोई टस से मस नहीं होता, हो ही नहीं सकता।