अजय चौधरी
कुछ लोग सोचते हैं कि सोशल मीडिया हमें करीब ला रहा है, कभी मुझे भी ये भ्रम रहा था। लेकिन अब इस भ्रम के हर मिथक टूट चुके हैं। और नतीजा यही है कि सोशल मीडिया पास नहीं दूर ही कर रहा है। हां, अनजानों को जरुर करीब ला रहा है। बहुत से अनजाने अब अपने हैं।
लेकिन जो आपके पुराने दोस्त हैं, फेसबुक के जमाने से पहले के, उन्हें दूर ही ले जा रहा है। उनकी मौजूदगी यहां है, यही गलत है। क्योंकि उनका और हमारा यहां होना महज एक औपचारिकता भर रह गया है।
यहां सबकी प्रोफाईल पर उनके हंसते चेहरे हैं। कोई दु:खी मन से फोटो भी तो नहीं लेता, लेता है तो झूठी हंसी इस चेहरे पर ले ही आता है। इसलिए इन हंसते चेहरों के पीछे क्या गम है, क्या उसकी जिंदगी में चल रहा है ये हम यहां बैठ कर और उसे मैसेज भेजकर अंदाजा नहीं लगा सकते।
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हम दोस्ती की सारी औपचारिकताएं यहां बैठकर पूरी कर लेना चाहते हैं। दिक्कत ये है कि यहां सब बस कैमरों में कैद की गई खुशी बांटने आते हैं। चल रहा गम बांटने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। कुछ बीमार लोग अपनी तस्वीर यहां डाल Get Well Soon वाले जमाने से अपनी मज़ाक ही बनवाते हैं। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, सब जानते हैं मेडिक्लेम का जमाना है।
हां, जन्मदिन कब आ रहा है, फेसबुक ये जरुर याद दिला देता है। बाकि अगर ये सोशल मीडिया न होता तो भी बहुत से साधन ऐसे विकसित हो जाते जो दोस्त का बर्थडे आपको बताते। जीमेल अभी भी बताता है। कीपैड वाला फोन और एसएमएस वाला जमाना भी अच्छा था।
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नई चीज यहां जो जुडी है वो है ट्रोल, ये वैसा ही है जैसा नेता को पब्लिक में काले झंडे दिखाए जाते हैं। यहां ट्रोलर्स आपको इतना ट्रोल करते हैं कि आपको आधी रात को इतनी टेंशन हो सकती है कि आप न तो किसी को बता सकते हैं न ही किसी दोस्त से इसे साझा कर सकते हैं। आपको अपने फोन के साथ अकेले इस गुस्से को सहन करना होता है। आने वाले दिनों में यहां सिर्फ प्रोपोगेंडा चलाने वाले, ट्रोलर्स और बड़ी कंपनियां ही बचेंगी। वैसे भी दोस्ती यहां से बहुत पहले शिफ्ट कर गई है…