Divorce Law in India: हाल ही में बेंगलुरु के एक टेक कर्मचारी अतुल सुभाष द्वारा कथित तौर पर भारी भरकम एलिमनी की मांग को लेकर हेरेस्मेंट के चलते आत्महत्या करने की घटना सामने आई। जिसने पूरे देश में तलाक के लिए बनाए गए कानूनों को लेकर बहस छेड़ दी है। शादी को तोड़कर तलाक लेना ना सिर्फ भावानात्मक रुप से मुश्किल होता है, बल्कि इसकी कानूनी प्रक्रिया भी काफी मुश्किल होती है। भारत में तलाक के लिए बनाए गए कानूनी प्रावधान में एलिमनी, मेनटेनेंस और बच्चे की देखभाल शामिल है, जो जीवनसाथी या परिवार के किसी सदस्य को जरूरत पड़ने पर वित्तीय सहायता देने के लिए बनाई गई है। जो अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग कानून पर निर्भर करते हैं।
एलिमनी और भरण-पोषण में अंतर (Divorce Law in India)-
इन कानून का उद्देश्य निष्पक्षता और वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करना होता है। विशेष रूप से ऐसे मामलों में जहां पर पति या पत्नी आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं। इस कानून का उद्देश्य न्याय संगत होना है। लेकिन तलाक के समय अक्सर अलग-अलग चीज़ें सामने आती रहती हैं। एलिमनी और मेनटेनेंस को अक्सर एक ही माना जाता है। लेकिन यह दोनों अलग-अलग होते हैं। एलिमनी एक मुस्त समझौता होता है, जो एक पति या पत्नी तलाक के बाद दूसरे को देता है। इसका उद्देश्य आर्थिक रूप से कमजोर जीवन साथी को समान जीवन स्तर बनाए रखने में मदद करना है। वहीं दूसरी ओर मेनटेनेंस (भरण-पोषण) व्यापक है और इसमें तलाक के साथ-साथ तलाक के बाद वित्तीय सहायता भी शामिल है।

भरण-पोषण के लिए अदालत की कार्यवाही (Divorce Law in India)-
वहीं बेंगलुरु के जेके लीगल के फाउंडर समर्थ श्रीनिवासन का कहना है, कि मेनटेनेंस में अदालत कार्रवाई के दौरान और उसके बाद जीवनसाथी के दैनिक जीवन यापन के खर्चों के लिए अंतरिम सहायता प्रदान की जाती है। जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके, कि डिपेंडेंट जीवनसाथी तलाक की कार्यवाही के खत्म होने खुद का भरण पोषण कर सके। वहीं एलिमनी तलाक के बाद प्रभावित होता है और एकमुश्त भुगतान होता है। एलिमनी की राशि और समय अलग-अलग फैक्टर्स पर आधारित होती है। जैसे शादी को कितना समय हुआ है, दोनों पक्षों की आय और कमाई की क्षमता, पति या पत्नी की ज़रुतें शामिल हैं। उदाहरण के लिए कोर्ट ऐसे मामलों में एलिमनी समझौते का पक्ष लेते हैं। जहां एक पति या पत्नी परिवार के लिए, अपने करियर के अवसरों को त्याग देते हैं। यह एक ऐसी असलियत है, जो अक्सर महिलाओं को असमान रूप से प्रभावित करती हैं।
कानूनी प्रावधान अलग-अलग कानून द्वारा शासित (Divorce Law in India)-
वहीं भारत में एलिमनी, मेनटेनेंस और बाल सहायता कानूनी प्रावधान अलग-अलग कानून द्वारा शासित होते हैं। जिनमें हिंदू विवाह अधिनियम 1955 (हिंदू विवाह में एलिमनी और मेनटेनेंस का प्रावधान करता है), वहीं मुस्लिम पर्सनल लॉ में शरिया कानून के तहत मेंटेनेंस का प्रावधान है। विशेष विवाह अधिनियम 1954 में अंतरधार्मिक और नागरिक विवाहों को कंट्रोल किया जाता है। वहीं दंड प्रक्रिया संहिता यानी सीआरपीसी की धारा 125 आश्रित पति या पत्नी, बच्चों और माता-पिता को मेंटेनेंस का दावा करने की अनुमति देता है। वहीं भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता धारा 144 डिपेंडेंट लोगों का मेंटेनेंस (भरण-पोषण) करती है।

एलिमनी की प्रक्रिया-
वही एलिमनी की प्रक्रिया चुनौतीपूर्ण होती हो सकती है। उदाहरण के लिए सुकेश और अंजना नामक दंपति का कोविड के बाद तलाक हो गया, चार साल से शादीशुदा और एक छोटे बच्चे की परवरिश कर रही अंजना ने खुद और अपने बच्चों का भरण पोषण करने के लिए एलिमनी मांगा। अंजना ने कहा, कि सुकेश मदद करने के लिए तैयार था। लेकिन प्रक्रिया लंबी थी और हमें कानूनी व्यवस्था से निपटने में संघर्ष करना पड़ा। चीज़ें स्पष्ट थीं, लेकिन उन्हें लागू करना मुश्किल और महंगा था। खासकर जब आप भावनात्मक और आर्थिक रूप से तनाव में हों। आपसी सहमति के बावजूद दंपति को कई अदालतों और उच्च कानूनी लागत जैसी बधाओं का सामना करना पड़ा।
सुकेश ने कहा कि तलाक की प्रक्रिया अपने आप में थका देने वाली थी। फाइनेंशियल बातचीत ने इसे और भी ज्यादा मुश्किल बना दिया। इसके अलावा चेन्नई के एक आईटी पेशेवर को एक अलग चुनौती का सामना करना पड़ा। शादी के 6 साल बाद उन्हें एक बड़ी एलिमनी राशि का भुगतान करना था, जबकि उनका आरोप था, की शादी टूटने के पीछे उनकी पत्नी जिम्मेदार थी। उन्होंने कहा, कि कानून में यह नहीं बताया गया, कि दोषी कौन है। यह सिर्फ वित्तीय जिम्मेदारी के बारे में है और अकेले कमाने वाले के रूप में मुझे इसका खामियाजा भूगतना पड़ा। समझौते ने मेरी बचत को खत्म कर दिया और मुझे बेरोजगार बना दिया।
बाल सहायता के लिए अलग कानून-
वहीं बाल सहायता के लिए एक अलग कानून होता है, जो तलाक के बाद बच्चों की मदद सुनिश्चित करता है। एलिमनी से अलग जिसे आपसी सहमति से माफ किया जा सकता है। बाल सहायता लगभग हमेशा अदालतों द्वारा लागू की जाती है। यह वित्तीय सहायता आम तौर पर स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और दैनिक जीवन की जरूरत जैसे खर्चों को देखकर तय की जाती है, उदाहरण के लिए पिया एक छोटी सा व्यवसाय चलाने वाली महिला हैं, ने अपने पहले पति से बच्चे के लिए अपने संघर्ष को याद किया। उनका कहना है कि उनका पति शुरु में मदद के लिए तैयार नहीं था। जिसके चलते उसे अपने पहले पति को समझाने के लिए कानूनी स्थितियों का सहारा लेना पड़ा। जिसमें अदालत ने बच्चे के कल्याण को प्राथमिकता दी, जिससे उसे काफी मदद मिली।

बच्चे की जरूरत सबसे पहले-
उन्होंने इस बात पर जोर दिया, कि बच्चे की जरूरत सबसे पहले आती हैं, हालांकि इस प्रक्रिया ने उन्हें भावनात्मक और आर्थिक रूप से भारी असर डाला। विशेष रूप से एक छोटे व्यवसाय के मालिक के रूप में काम और देखभाल के बीच संतुलन बनाने में। भारत में एलिमनी और भरण-पोषण का निर्धारण कई पहलुओं को ध्यान में रखकर किया जाता है। न्यायालय दोनों पक्षों की आय, संपत्ति और देनदारी समेत उनकी वित्तीय स्थिति का मूल्यांकन करती है। विवाह की अवधि भी एक जरूरी भूमिका निभाती है। क्योंकि लंबे समय तक साथ रहने से अक्सर गुजारा भत्ता देने की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। इसके अलावा विवाह के दौरान सहायता प्राप्त करने वाले पति या पत्नी के जीवन स्तर पर सावधानी से विचार किया जाता है। जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके, कि तलाक के बाद मिलने वाला वित्तीय समर्थन उनकी पिछली लाइफस्टाइल के अनुरूप हो। वहीं बच्चों से जुड़े मामलों में उनका कल्याण प्राथमिकता रखता है, जो गुजारा भत्ता और बाल सहायता दोनों पर फैसले को प्रभावित करता है।
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न्यायालय का पहला उद्देश्य-
न्यायालय का पहला उद्देश्य निष्पक्षता सुनिश्चित करना है। श्रीनिवास का कहना है, कि न्यायाधीश पति-पत्नी के बीच आय, समानता, बच्चों के कल्याण और आश्रित पति-पत्नी की जरूरत पर विचार करते हैं। यह प्रक्रिया जिम्मेदारियां को संतुलन करने और शामिल सभी पक्षों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए बनाई गई है। वहीं कई देशों में पूर्ण समझौते भारतीय कानून के तहत ना तो मान्यता प्राप्त और ना ही लागू किया जा सकते हैं। यह भारत में विभाग, संस्कृति और सामाजिक धारणाओं की गहराई से निहित है। समर्थ श्रीनिवास का कहना है, कि भारतीय विवाह को एक पवित्र संस्था, विश्वास और प्रतिबद्धता पर आधारित धार्मिक बंधन के रूप में देखा जाता है।
कानूनी विशेषज्ञों का क्या कहना है?
कानूनी विशेषज्ञों का कहना है, कि हमें कपल को स्वाभाविपूर्ण समझौते तक पहुंचने में मदद करने के लिए जागरूकता और कुछ बीच के रास्तों की ज़रुरत है। वहीं अदालत को भी इस प्रक्रिया के समय को कम करना चाहिए और पक्षों के हितों का फैसला करते समय संतुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। उन्होंने कहा, कि बच्चों से जुड़े मामलों में उनका कल्याण प्राथमिकता है, जो एलिमनी और बाल सहायता दोनों पर निर्णय को प्रभावित करता है। बच्चों के मामले में बच्चों का कल्याण सबसे पहले आता है। बाल सहायता और एलिमनी दोनों ही फैसले को प्रभावित करते हैं।
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