Dayanand Saraswati: एक शिवरात्रि की रात, गुजरात के एक मंदिर में एक युवा पूजारी की आंखों ने वो देखा, जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। मूलशंकर नाम के इस युवा ने, जो बाद में दयानंद सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुए, देखा कि कैसे एक छोटा-सा चूहा भगवान शिव की मूर्ति पर चढ़कर प्रसाद को कुतर रहा था। यह दृश्य उनके मन में गहरी उथल-पुथल मचा गया।
Dayanand Saraswati मूर्ति पूजा पर सवाल-
एक कट्टर शिव भक्त के लिए यह क्षण जीवन का टर्निंग पॉइंट बन गया। उनके मन में एक सवाल उठा – अगर भगवान की मूर्ति एक मामूली चूहे को भी नहीं रोक सकती, तो वह दैवीय शक्ति कैसे हो सकती है? यही वह पल था जिसने मूर्ति पूजा के प्रति उनके विश्वास को झकझोर दिया।
Dayanand Saraswati बचपन और परिवारिक पृष्ठभूमि-
12 फरवरी 1824 को गुजरात के टंकारा में जन्मे मूलशंकर तिवारी एक धार्मिक ब्राह्मण परिवार की संतान थे। उनके पिता करशनजी तिवारी एक सम्मानित पुजारी थे। माता यशोदाबाई के साथ मिलकर उन्होंने मूलशंकर को शैव परंपराओं की शिक्षा दी। लेकिन जीवन ने उन्हें कुछ और ही सिखाना था।
Dayanand Saraswati आध्यात्मिक खोज की शुरुआत-
हैजा से अपनी छोटी बहन और चाचा की मृत्यु ने युवा मूलशंकर को गहराई से प्रभावित किया। जीवन और मृत्यु के बारे में उनके मन में अनेक प्रश्न उठने लगे। पारंपरिक व्याख्याएं उनके प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर नहीं दे पा रही थीं। अंततः सत्य की खोज में उन्होंने घर छोड़ दिया।
आर्य समाज की स्थापना-
वर्षों की यात्रा और कठोर अध्ययन के बाद, मूलशंकर ने दयानंद सरस्वती का नाम धारण किया। 1875 में उन्होंने बॉम्बे में आर्य समाज की स्थापना की। उनका उद्देश्य था – वेदों की शिक्षाओं की ओर लौटकर हिंदू धर्म का पुनरुत्थान करना और अंधविश्वासों, कर्मकांडों और भ्रष्ट प्रथाओं को समाप्त करना।
सामाजिक सुधार का अभियान-
दयानंद सरस्वती ने बाल विवाह, जाति भेदभाव और महिलाओं के शोषण जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने महिला शिक्षा और वंचित समुदायों के उत्थान के लिए काम किया। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ जैसी पुस्तकों के माध्यम से उन्होंने धार्मिक प्रथाओं की आलोचनात्मक समीक्षा की और वेदों के प्राधिकार को स्थापित किया।
शिक्षा और प्रगति का दृष्टिकोण-
वेदों की ओर लौटने का उनका आह्वान लाला लाजपत राय जैसे नेताओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बना। शिक्षा, सामाजिक सुधार और आत्मनिर्भरता पर उनका फोकस एक प्रगतिशील और स्वावलंबी भारतीय समाज की नींव बन गया।
अंतिम समय और विरासत-
30 अक्टूबर 1883 को विष देने के प्रयास से हुई चोटों के कारण उनका देहांत हो गया। अपने जीवन में कई बार उन पर हमले हुए, लेकिन वे अपने मिशन से नहीं डिगे। आज भी आर्य समाज के माध्यम से उनकी विरासत जीवंत है।
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आधुनिक भारत में प्रासंगिकता-
दयानंद सरस्वती के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। उनका तर्कसंगत चिंतन और सामाजिक समानता का दृष्टिकोण वर्तमान समय में भी मार्गदर्शक है। शिक्षा, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक समरसता के लिए उनका संघर्ष आज भी प्रेरणा का स्रोत है।
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