अजय चौधरी
ये वो दौर है जब सत्ता चाहती है कि सबकुछ सत्ताानुकुल हो, जो सत्ता के साथ नहीं वो देश के साथ नहीं। यानी सत्ता ही धर्म है और सत्ता ही देशभक्ती। देश बचाने के लिए सत्ता का साथ जरुरी है नहीं देश खतरे में है। धर्म बचाना है तो भी आपको सत्ता की जरुरत है और अगर खुद को बचाना है तो वो काम भी सत्ता ही कर सकती है। आप दूसरों से सहमें रहें तभी सत्ता का बटन दबाते रहेंगे। लेकिन सत्ता की उम्र क्या है? 5 बरस 10 बरस या 15 बरस? बस इतनी ही, देश से ज्यादा तो नहीं? फिर भी सत्ता ये भ्रम पाले होती है कि वो अमर है अजर है। ये भ्रम हर किसी का टूटा है, एमरजेंसी लगाने वालों का भी और अघोषित एमरजेंसी जैसे माहौल का भी।
वक्त की सुईंया जब घूमती हैं तो बहुत कुछ बदल देती हैं। आज के वर्तमान को इतिहास बना देती हैं और कुछ को इतिहास बना भुला भी देती हैं। फिर आपको कैसा लगे जब पता चले उस इतिहास में आप किस भ्रम में जी रहे थे और क्या कुछ आपकी बंद आंखों के सहारे किया जा रहा था। 2019 का आम चुनाव इतिहास में बेमुद्दों के चुनाव के रुप में याद किया जाएगा। क्योंकि इस चुनाव को मुद्दों की जरुरत ही नहीं है। लडाई चहरा बचाने से लेकर चेहरा बदलने तक ही सीमित है। अगर सत्ता हस्तांतरण भी हो जाता है तो चहेरे के अलावा कुछ बदल पाएगा कहना मुश्किल है।
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अजय चौधरीये वो दौर है जब सत्ता चाहती है कि सबकुछ सत्ताानुकुल हो, जो सत्ता के साथ नहीं वो देश के साथ नहीं। यानी सत्ता ही धर्म है और सत्ता ही देशभक्ती। देश बचाने के लिए सत्ता का साथ जरुरी है नहीं देश खतरे में है। धर्म बचाना है तो भी आपको सत्ता की जरुरत है और अगर खुद को बचाना है तो वो काम भी सत्ता ही कर सकती है। आप दूसरों से सहमें रहें तभी सत्ता का बटन दबाते रहेंगे। लेकिन सत्ता की उम्र क्या है? 5 बरस 10 बरस या 15 बरस? बस इतनी ही, देश से ज्यादा तो नहीं? फिर भी सत्ता ये भ्रम पाले होती है कि वो अमर है अजर है। ये भ्रम हर किसी का टूटा है, एमरजेंसी लगाने वालों का भी और अघोषित एमरजेंसी जैसे माहौल का भी।वक्त की सुईंया जब घूमती हैं तो बहुत कुछ बदल देती हैं। आज के वर्तमान को इतिहास बना देती हैं और कुछ को इतिहास बना भुला भी देती हैं। फिर आपको कैसा लगे जब पता चले उस इतिहास में आप किस भ्रम में जी रहे थे और क्या कुछ आपकी बंद आंखों के सहारे किया जा रहा था। 2019 का आम चुनाव इतिहास में बेमुद्दों के चुनाव के रुप में याद किया जाएगा। क्योंकि इस चुनाव को मुद्दों की जरुरत ही नहीं है। लडाई चहरा बचाने से लेकर चेहरा बदलने तक ही सीमित है। अगर सत्ता हस्तांतरण भी हो जाता है तो चहेरे के अलावा कुछ बदल पाएगा कहना मुश्किल है।जो उंगलियां सत्ता की तरफ उठती हैं, सत्ता उन्हें छुती तो नहीं लेकिन फिर भी वो दूसरी ओर मोड़ दी जाती हैं। कौन मोडता है और वो कौनसी ताकतें हैं इसका कुछ पता नहीं चल पाता। कुछ लोग हैं जो इसके रास्ते में आए और रोडे की तरह अटके। सत्ता ने उन्हें निकाल फैंकने की पूरी कोशिश की। उन्हें से कुछ कलमकार भी थे लेकिन उन लोगों ने सोशल मीडिया को ही अपना हथियार बना लिया और वहीं से बैठे बैठे कड़ा प्रहार करने लगें। वो तो कुछ विदेशी कंपनियां है जो अभी पूरी तरह सत्ता के काबू में नहीं है और इंटरनेट अभी अपनी स्वतंत्रता की कहानियां बयां कर रहा है।अगर सत्ता की उम्र 5 बरस और बढ़ गई तो ये विदेशी कंपनियां जो आपको बोलने और लिखने की स्वतंत्रता दे रही हैं शायद उसकी भी स्वतंत्रता पर खतरा मंडरा जाए। देश के मुख्य न्यायाधीश कह रहे हैं कि कुछ ताकते हैं जो उन्हें बदनाम और निष्क्रिय करना चाहती हैं। सोच कर देखना चाहिए अगर उनपर लगे आरोप गलत हैं तो फिर वो कौैनसी ताकतें हैं जो सीधा हमला देश की सर्वोच्च अदालत पर बोल रही हैं और उन्हें इस अदालत से क्या खतरा है? किन मुख्य मामलों की सुनवाई अदालत में हो रही है जिन्हें दबाने की कोशिश हो सकती है। हो सकता है गोगई ऐसे ही कह रहे हों और मैंने भी ऐसे ही लिख दिया। सब ठीक है, बात खत्म।“ये लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में सभी सूचनाएं लेखक द्वारा दी गई हैं, जिन्हें ज्यों की त्यों प्रस्तुत किया गया हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति दस्तक इंडिया उत्तरदायी नहीं है।”
जो उंगलियां सत्ता की तरफ उठती हैं, सत्ता उन्हें छुती तो नहीं लेकिन फिर भी वो दूसरी ओर मोड़ दी जाती हैं। कौन मोडता है और वो कौनसी ताकतें हैं इसका कुछ पता नहीं चल पाता। कुछ लोग हैं जो इसके रास्ते में आए और रोडे की तरह अटके। सत्ता ने उन्हें निकाल फैंकने की पूरी कोशिश की। उन्हें से कुछ कलमकार भी थे लेकिन उन लोगों ने सोशल मीडिया को ही अपना हथियार बना लिया और वहीं से बैठे बैठे कड़ा प्रहार करने लगें। वो तो कुछ विदेशी कंपनियां है जो अभी पूरी तरह सत्ता के काबू में नहीं है और इंटरनेट अभी अपनी स्वतंत्रता की कहानियां बयां कर रहा है।
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