सूरजकुंड। सात सदीयों से भारत में रह रहे अफ्रीकी मूल के लोग अब भी अपनी कबिलाई संस्कृति से जुडे हुए हैं। गुजरात में रह रहे ये लोग सिद्धीधमाल ग्रुप के जरिए सूरजकुंड मेले में अफ्रीकी लोक नृत्य को बेहद मौलिक पेशेवार तरीके से पेश कर रहे हैं।
अफ्रीका से कबीले के सरदार बाबा हजरत गौर के साथ आए 200 लोग गुजारत के भरुच जिले के रतनापुर में आकर बसे थे। हालांकि नई पीढी के लोग पूर्णत: भारतीय संस्कृती में रच बस गए हैं पर इनकी जडें अब भी कबिलाई रीती रिवाज और लोक नृत्यों से जुडी हुई हैं।
सिद्धीधमाल ग्रुप के सदस्य सिद्दधी बाबु ने बताया कि वो पिछले 18 वर्षों से सूरजकुंड मेले में अपनी कला का प्रदशर्न करने आ रहे हैं। सिद्धि बाबु ने कहा कि यहां मौजूद सभी लोगों को हमारे चेहरे, रंग और बालों को देखने से लगता है कि हम अफ्रीकन लोग हैं , अफ्रीका के हमारे पूर्वज थे मगर मैं गर्व के साथ कह सकता हूं कि मैं भारतीय हूं, एक गुजराती हूं।
ग्रुप के प्रधान इमरान ने बताया कि वो गुजराती नृत्य भी करते हैं, डांडिया भी खेलते हैं मगर उन्होंने अपने पूर्वजों की परंपराओं को अभी भी छोडा नहीं है। भारत सरकार के सौजन्य से वो पूरे देश में 1986 से अपनी संस्कृती को प्रदर्शित कर रहे हैं। वो अफ्रीका का लोक नृत्य यहां सूरजकुंड में प्रदर्शित कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि यह डांस साहस का प्रतीक भी माना जाता है। इसमें कलाकार आदिवासियों का भेष अपनाते हैं। उन्होंने बताया कि ये लोग जंगल में रहे हैं और कईं बार इनका जंगली जानवरों से सामना हुआ है। तो वो जनवारों से बचने के लिए उन्हीं के जैसी तरह तरह की अवाजें निकालते हैं जिसका प्रदर्शन भी वो सूरजकुंड मेले में कर रहे हैं।