अजय चौधरी
दिल्ली से मथुरा चलने वाली शटल में मैंने भी कईं बार सफर किया है। इसी शटल में जुनैद की चाकुओं से गोदकर हत्या हुई है। दिल्ली वया फरीदाबाद पलवल रुट पर कईं शटल हैं। जिनमें से कुछ शटल पलवल से आगे मथुरा तक जाती हैं। पलवल हरियाणा का इस रुट पर आखिरी जिला है, उसके बाद यूपी शुरु हो जाता है। तुगलकाबाद रेलवे स्टेशन दिल्ली का आखिरी रेलवे स्टेशन है, उसके बाद फरीदाबाद शुरु हो जाता है।
कॉलेज जाते समय लगभग एक साल शटल का प्रयोग किया है, उस समय फरीदाबाद में मेट्रो नहीं आई थी। वैसे उस समय केंद्र में मोदी सरकार और हरियाणा में खट्टर सरकार नई नई थी। दिल्ली से पलवल चलने वाली इन शटलों में सबसे अधिक भरमार डेली पैंसजरों की होती है। अगर डेली पैसेंजर आपसे दो स्टेशन बाद भी चढा है तो इस बात की प्रबल संभावना है कि आपसे पहले उसे सीट मिल जाएगी। क्योंकि उसे पता है कि सीट कहां और कैसे मिलेगी।
शुरुआत में जब मैंने शटल में जाना शुरु किया तो सीट मिलना नामुनकिन सा था, आराम से खडे होने का एक कोना ही मिल जाए वो ही बहुत होता था, नहीं तो धक्के लग लग आदमी कहां पहुंच जाए कुछ पता नहीं चलता। धीरे धीरे दैनिक यात्रियों( डेली पैसेंजरों) के सहयोग से सीट नसीब होने लगी। क्योंकि उन्हें पता होता है कौन कहां उतरेगा इसलिए वो पहले से इशारा कर देते कि भाई पहुंच जा। लोकल शटल में तास खलने वालों की, कितर्न मंडली के डिब्बे तो क्या सीटें तक फिक्स होती हैं। ये तक फिक्स होता है कि कौनसा किस कोने में बैठेगा।
स्टेशन पर खडे होकर इस बात का भी अंदाजा हो जाता है कि कौनसा डिब्बा कहां आकर रुकेगा और उसका दरवाजा कहां होगा, जो नए मुसाफिरों को नहीं होता। इसी से फटाफट भागकर सीट हथिया ली जाती है। मेट्रो में इसके लिए निशान लगे होते हैं मगर लोकल में ऐसा नहीं होता। धीरे धीरे मेरी भी सीट और डिब्बा तय हो गया। मेट्रो में सब एक दूसरे की शक्लें ताकते रहते हैं पर आपस में बात शायद कम ही करते हैं। दूसरी तरफ इसके उलट लोकल में ये भाईचारा कायम है। यहां बैठकर आप देश दुनिया की ताजा खबरों पर बहस के साथ अपना दु:ख और सुख भी बांट सकते हैं। हां आजकल मोबाइलों पर नई फिल्में भी इसी सफर के दौरान कईं यात्री देखते हैं और शेयर इट से आदान-प्रदान भी पूरा चलता है। इसी हंसी-मजाक में समय बडी जल्दी बीतता था और आपकी मंजिल कब कब में आ जाती थी पता ही नहीं चलता था।
वैसे दैनिक यात्रियों के साथ एडजस्ट करना इतना भी आसान नहीं था। क्योंकि ये ट्रेन दिल्ली से पलवल के बीच चलती हैं। और पलवलिया तो पूरी दिल्ली में अपनी भाषा और कर्मों की बदौलत पूरी दिल्ली में बदनाम हैं। इनका हर शटल में अपना अलग गुट चलता है। कोई नया आदमी इन्हें सीट न दे तो ये उसकी गोदी में जाकर बैठ जाते हैं। क्योंकि वहां इनकी सीट फिक्स होती है। जुनैद हत्याकांड में सीट को लेकर हुआ विवाद ही सामने आया है। राजकीय रेलवे पुलिस ने भी सीट को लेकर हुए विवाद पर ही मामला दर्ज किया है। मुस्लिम समुदाय के लोग पहले से इन शटलों में सफर करते आए हैं और अन्य किसी यात्री को मैंने कभी धर्मिक आधार पर मुस्लिम समुदाय के लोगों पर टिप्पणी करते नहीं देखा। हो सकता है आजकल गौ माता के नाम पर धर्मिक कट्टरपंथी पैदा हो रहे हैं, तो लोगों के मन में ऐसी भवनाए पनपने लगी हों।
इस बात की पूरी संभावना है कि जुनैद और उसके भाईयों का झगडा पलवल के दैनिक यात्रियों से ही हुआ था। क्योंकि वो असावटी रेलवे स्टेशन पर इन्हें फेंककर आगे बढ गए। जुनैद और उसके भाई दैनिक यात्री नहीं थे वो तो ईद के मौके पर इस शटल में चढे थे और सीट ले बैठ गए थे। अब दैनिक यात्रीयों की सीट पर कोई बैठ जाए तो ये बात उन्हें कहां हजम हो। और बैठने वाले ऊपर से दूसरे धर्म के हों और सीट से न उठें तो ये बात उन्हें कहां हजम हो। ऐसे में झगडा तो होना ही था। जुनैद और उसके भाई भी कम संख्यां में नहीं थे। ऐसे में झगडा करने वाले पलवलीयों ने अन्य दैनिक यात्रियों का साथ जुटाने के लिए जुनैद और उसके भाईयों पर बीफ खाने का आरोप लगा मामले को धार्मिक रुप दे दिया होगा। जिससे कुछ यात्री साथ आए होंगे और जो नहीं आएं होंगे वो भी चुप खडे रहे होंगे।
आपने ये भी गौर किया होगा कि यात्रियों के हवाले से मरने से पहले जुनैद के असावटी स्टेशन पर तडपते हुए की वीडियो सामने आई। ट्रेन में बिखरे खून की भी तस्वीरें सामने आई। फिर लडाई के दौरान चाकु मारने की वीडियो भी तो किसी ने बनाई होगी। वो क्यों सामने नहीं आई। क्योंकि वो दैनिक यात्री हैं और एक दूसरे को फंसाना नहीं चाहते। बहारी सिर्फ जुनैद और उसका परिवार था। जुनैद पर मथुरा जाने वाली शाम की शटल में आगे से चौथे डिब्बे में हमला हुआ था। दैनिक यात्री अपनी आदत के अनुसार न सीट छोडते हैं न अपना डिब्बा। वो आज भी उस डिब्बें में आ जा रहे होंगे।