अजय चौधरी
सबसे पहले तो आपको मैं साफ कर दूं कि मैं सुप्रीमकोर्ट के पटाखों को लेकर दिए गए फैसले से बिलकुल दु:खी नहीं हूं। एक पर्यावरण प्रेमी होने के नाते मुझे बहुत खुशी है। मैं ये भी चाहता हूं कि अपना प्यारा दिल्ली एनसीआर मुझे छोडकर न जाना पडे। क्योंकि ज्यादा प्रदूषण मैं सह नहीं पाउंगा। मैं क्या कोई भी बेवजह अपनी उम्र घटाने और बीमारी पालने में रुची नहीं रखता, फिर भी हम सबकुछ नजरअंदाज कर आगे बढ़ जाते हैं और धर्म के नाम पर तो सब जायज होता ही है।
सुप्रीम कोर्ट का पटाखों पर लगाई गई एक याचिका पर फैसला आया है कि माना कि आप पटाखे फोडे लेकिन कम ध्वनी वाले और दिवाली की रात 8 से 10 बजे के बीच ही। आप कि तरह मैं भी सोचता हूं कि सिर्फ दिवाली ही क्यों? प्रदूषण के तो ओर भतेरे कारण हैं जो रोज-रोज हमारी सांसों में जहर घोल रहे हैं। दिवाली का मसला बंद होगा तो किसानों के पराली जलाने का मसला आ ही जाएगा। किसान दिल्लीवालों की नजर में किसी खलनायक से कम नहीं होंगे लेकिन कभी किसी ने नहीं सोचा कि रोज जो ये कारों के पहिए सडकों पर बढ़ रहे हैं उनका क्या? क्यों नहीं अबतक हम इलकट्रिक कारों की ओर बढ़ पाए हैं। फिर से ओड़ इवन लगेगा। लेकिन परमानेंट सोल्यूशन पर कोई विचार करता ही नहीं। इलकट्रिक कारें लगभग सभी कंपनीयां ऑटो एक्सपो में पेश कर चुकी हैं लेकिन बाजार में कब आएंगी ये कह नहीं सकते। सरकार भी उदासीन है, कारों की चार्जिंग के लिए जगह जगह पर चार्जिंग स्टेशन बनाने का अभी तक तो कोई खाका भी तैयार नहीं किया गया है।
पटाखे बैन पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला, रखी कुछ शर्ते
अजय चौधरी सबसे पहले तो आपको मैं साफ कर दूं कि मैं सुप्रीमकोर्ट के पटाखों को लेकर दिए गए फैसले से बिलकुल दु:खी नहीं हूं। एक पर्यावरण प्रेमी होने के नाते मुझे बहुत खुशी है। मैं ये भी चाहता हूं कि अपना प्यारा दिल्ली एनसीआर मुझे छोडकर न जाना पडे। क्योंकि ज्यादा प्रदूषण मैं सह नहीं पाउंगा। मैं क्या कोई भी बेवजह अपनी उम्र घटाने और बीमारी पालने में रुची नहीं रखता, फिर भी हम सबकुछ नजरअंदाज कर आगे बढ़ जाते हैं और धर्म के नाम पर तो सब जायज होता ही है। सुप्रीम कोर्ट का पटाखों पर लगाई गई एक याचिका पर फैसला आया है कि माना कि आप पटाखे फोडे लेकिन कम ध्वनी वाले और दिवाली की रात 8 से 10 बजे के बीच ही। आप कि तरह मैं भी सोचता हूं कि सिर्फ दिवाली ही क्यों? प्रदूषण के तो ओर भतेरे कारण हैं जो रोज-रोज हमारी सांसों में जहर घोल रहे हैं। दिवाली का मसला बंद होगा तो किसानों के पराली जलाने का मसला आ ही जाएगा। किसान दिल्लीवालों की नजर में किसी खलनायक से कम नहीं होंगे लेकिन कभी किसी ने नहीं सोचा कि रोज जो ये कारों के पहिए सडकों पर बढ़ रहे हैं उनका क्या? क्यों नहीं अबतक हम इलकट्रिक कारों की ओर बढ़ पाए हैं। फिर से ओड़ इवन लगेगा। लेकिन परमानेंट सोल्यूशन पर कोई विचार करता ही नहीं। इलकट्रिक कारें लगभग सभी कंपनीयां ऑटो एक्सपो में पेश कर चुकी हैं लेकिन बाजार में कब आएंगी ये कह नहीं सकते। सरकार भी उदासीन है, कारों की चार्जिंग के लिए जगह जगह पर चार्जिंग स्टेशन बनाने का अभी तक तो कोई खाका भी तैयार नहीं किया गया है।गाडियों को भी एक तरफ रख दीजिए दिल्ली एनसीआर के बहुत से हिस्सों में बहुत सी ऐसी यूनिटें हैं जो 24 घंटे काला धुवां उगल रही हैं और लोगों की जिंदगी में काली रख जमा रही हैं। बहुत से कबाडी रात का अंधेरा होते ही टायर जलाना शुरु कर देते हैं और भोर होने तक वो आपकी सैर के लिए ऑक्सीजन तैयार कर चुके होते हैं। अपके घरों में से निकला कूडा शहर के कोनों में जल रहा होता है धुंए के काले गुबार उठ रहे होते हैं, लेकिन आप पर फर्क नहीं पडता। आप मुंह खोलते हैं और इसके लिए किसान को जिम्मेदार ठहरा देते हैं। मैं कहता हूं कि सिर्फ किसान ही जिम्मेदार क्यों? कोई और क्यों नहीं, हमारा प्रशासन, नगर निगम क्यों नहीं? किसानों की पराली जलाने पर लगने वाले जुर्माने की तरह हमने कभी अपने शहर के उद्योगपतियों और कुडा डाल कर उसमें आग लगाने वाले नगर निगम के कर्मचारियों पर जुर्माना लगाने की बात सोची भी नहीं। क्या वो किसानों से भी गरीब हैं?किसानों की ही तरह हमारी नजर में प्रदूषण का दूसरा खलनायक दिवाली है। दिवाली के बम-पटाखे प्रदूषण फैलाते हैं इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने इनपर समय की पाबंदी लगा दी है। मैं मानता हूं कि अगर ये वायु प्रदूषण न फैलाते तो भी इनपर रोक लग जानी चाहिए थी क्योंकि इनका ध्वनी प्रदूषण भी सहन करने लायक नहीं होता। वो लोग पता नहीं किस गृह से आते हैं जो पटाखों पर प्रतिबंध को उनके धार्मिक कार्य में रोक की तरह लेते हैं, मेरे लिए वो सिर्फ लोगों को बरगलाने वाले हंसी के पात्र की हैसियत रखते हैं। लेकिन केवल दिवाली पर ही पटाखों पर प्रतिबंध लगाने से काम नहीं चलेगा क्योंकिं दिवाली के बाद भी बहुत से ऐसे त्यौहार होते हैं जिनपर फटने वाले बम और पटाखों पर कोई ध्यान नहीं देता। जो बडा त्योहार होता है वो पहले नजर आते है, दिवाली सुप्रीम कोर्ट की हिट लिस्ट पर है क्योंकि साल भर के सारे पटाखे एक ही दिन फूट जाते हैं। लेकिन हमें दूसरे त्योहारों को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए जो पटाखे छुडाने में दिवाले के पीछे पीछे आ रहे हैं, कहना गलत नहीं होगा अब शोरशराबा करना ही हमारा त्योहार रह गया है। दिवाली के बाद मेरे पूर्व और बिहार साइड के मित्रों का एक त्यौहार आता है छठ पूजा, इस बार 13 नवंबर का है, दिल्ली एनसीआर में प्रदूषण की मार सबसे ज्यादा रहती है तो ऐसे में हम यहां दिवाली पर पटाखे कम छोडने का अनुरोध करते हैं और कुछ लोग इन अनुरोधों को मान भी रहे हैं। जो नहीं मान रहे उनका तो धर्मसिद्ध अधिकार है पटाखे फोडना। लेकिन इसी दिल्ली एनसीआर में बिहार साइड के लोग काफी संख्या में रहते हैं वो यहां स्थायी और अस्थायी घाटों पर अपनी छठ पूजा करते हैं और भारी संख्या में बम-पटाखे छोडते हैं, दिवाली के पटाखों के 50 प्रतिशत तो ये होंगे ही। सल दर साल छठ पर पटाखे बढते जा रहे हैं। फिर भी लोग, प्रशासन,नेता, कोर्ट आदि इन पटाखों और रोकेटों पर चुप्पी लगाए रखते हैं हो सकता है इन पटाखों से प्रदूषण न फैलता हो। दिवाली के पटाखों पर समय की पाबंदी लगाने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद लोगों को न्यू ईयर और क्रिसमस डे पर छुटने वाले पटाखों की तो याद आ रही है लेकिन आपके सुबह उठने से पहले छठ पूजा के नाम छुडाए जाने वाले पटाखों से वातावरण में घुलने वाला प्रदूषण का जहर किसी को नजर नहीं आ रहा। क्यों?“ये लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में सभी सूचनाएं लेखक द्वारा दी गई हैं, जिन्हें ज्यों की त्यों प्रस्तुत किया गया हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति दस्तक इंडिया उत्तरदायी नहीं है।”
गाडियों को भी एक तरफ रख दीजिए दिल्ली एनसीआर के बहुत से हिस्सों में बहुत सी ऐसी यूनिटें हैं जो 24 घंटे काला धुवां उगल रही हैं और लोगों की जिंदगी में काली रख जमा रही हैं। बहुत से कबाडी रात का अंधेरा होते ही टायर जलाना शुरु कर देते हैं और भोर होने तक वो आपकी सैर के लिए ऑक्सीजन तैयार कर चुके होते हैं। अपके घरों में से निकला कूडा शहर के कोनों में जल रहा होता है धुंए के काले गुबार उठ रहे होते हैं, लेकिन आप पर फर्क नहीं पडता। आप मुंह खोलते हैं और इसके लिए किसान को जिम्मेदार ठहरा देते हैं। मैं कहता हूं कि सिर्फ किसान ही जिम्मेदार क्यों? कोई और क्यों नहीं, हमारा प्रशासन, नगर निगम क्यों नहीं? किसानों की पराली जलाने पर लगने वाले जुर्माने की तरह हमने कभी अपने शहर के उद्योगपतियों और कुडा डाल कर उसमें आग लगाने वाले नगर निगम के कर्मचारियों पर जुर्माना लगाने की बात सोची भी नहीं। क्या वो किसानों से भी गरीब हैं?
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