क्या छोडूं क्या प्यार करुँ?
जितने तारे नील गमन में,
उतने सपने जगे हैं मन में,
इस लघु जीवन में बोलो, तो
किस किस को साकार करुँ?
क्या छोडूँ, क्या प्यार करुँ?
जितनी चाह न उतनी राहें,
जितना प्यार न उतनी बाहें,
हाय! हृद्य का धन देकर भी,
पीने को मिलती हैं आहें।
चाह रहा पीड़ा पी जाऊँ,
झोंपड़ियों को महल बनाऊँ,
किन्तु यहाँ थोड़े से क्षण में,
किस-किस का आधार धरुँ?
कितने दु:खी यहाँ तन-मन हैं,
और विवश कितने ही क्षण हैं,
व्यर्थ भटकते मंजिल के हित,
राहों के नित सूनेपन हैं।
चाह रहा जन-जन तक जाऊँ
खाई पाट पुलिन बन जाऊँ,
चलकर इस अपार निर्जन में
किस किस पथ को पार करुँ?
पीड़ा में सोयी मधु आशा
सजग विनाश, सृजन है प्यासा;
कोई कण्व बना है रोता,
कोई बन जाता दुवार्सा।
विश्वामित्र आज बन जाऊँ,
निबार्धितनव-सृष्टि रचाऊँ,
किन्तु बँधा अपने बंधन में।
किससे नित्य पुकार करुँ?
किसको मीत बनाऊँ, जग में?
किससे प्रीति जताऊँ जग में?
काँटे लगने लगे यहाँ अब
विकसित सुमनों की रग-रग में,
चाह रहा काँटे सहलाऊँ,
फूलों को सुकुमार बनाऊँ,
चुभन विकट है अपनेपन में,
पतझड़ किसे बहार करुँ?
अपने तो केवल सपने हैं,
दिन में कब तारे जगने हैं,
कहो गरल से सिंचित तरु में
यहाँ कहाँ मधुफल लगने हैं?
चाह रहा अमृत बरसाऊँ,
जग से विष की बेल हटाऊँ,
मधु-भावों से पलित है मन;
किस-किस की मनुहार करुँ?
रचना- स्वर्गीय कवि प्रभुदयाल कश्यप ‘प्रवासी’
