कांवड़ यात्रा हिन्दू धर्म की एक प्रमुख तीर्थयात्रा है, जो हर साल सावन महीने में भगवान शिव के भक्तों द्वारा की जाती है। यह यात्रा गंगा नदी से जल लाकर अपने क्षेत्र के शिव मंदिरों में अभिषेक करने के उद्देश्य से की जाती है। इसे “भोले के भक्तों की सबसे पवित्र पदयात्रा” भी कहा जाता है।
साल 2025 में यह यात्रा 13 जुलाई से 27 जुलाई तक आयोजित की जाएगी। इस दौरान उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों से लाखों कांवड़िए हरिद्वार, गंगोत्री, गौमुख और वाराणसी जैसे तीर्थस्थलों से पवित्र गंगा जल लेकर अपने-अपने गांव या शहरों के शिव मंदिरों में शिवलिंग का अभिषेक करेंगे।
कांवड़ यात्रा का इतिहास और महत्व
कांवड़ यात्रा की परंपरा बहुत प्राचीन है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, समुद्र मंथन के समय निकले विष को भगवान शिव ने अपने कंठ में धारण किया था। विष की गर्मी को शांत करने के लिए भक्तों ने उन्हें गंगा जल अर्पित किया। तभी से सावन के महीने में यह परंपरा चल पड़ी।
कांवड़ शब्द संस्कृत के “कांवण” से आया है, जिसका अर्थ है – एक ऐसा बांस का ढांचा, जिसके दोनों सिरों पर जल के बर्तन टांगे जाते हैं।
यात्रा का स्वरूप और मार्ग
कांवड़िए मुख्य रूप से निम्नलिखित स्थानों से गंगाजल भरते हैं:
- हरिद्वार (उत्तराखंड)
- गंगोत्री और गौमुख (उत्तराखंड)
- वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
- सुलतानगंज (बिहार)
भक्त पैदल, साइकिल, बाइक, ट्रक या ट्राली से भी यात्रा करते हैं। हालांकि, अधिकांश श्रद्धालु इसे पैदल ही पूरी करते हैं। पैदल यात्रा करने वाले कांवड़ियों को “डाक कांवड़िए” कहा जाता है, जो बिना रुके एक ही बार में अपने गंतव्य तक पहुंचने की कोशिश करते हैं।
विशेष परंपराएं और नियम
- कांवड़िए गंगाजल लेने के बाद नंगे पांव चलते हैं।
- जल रखने वाले बर्तनों को ज़मीन पर नहीं रखा जाता।
- पूरे मार्ग में “बोल बम”, “हर हर महादेव”, “जय भोले” के जयघोष सुनाई देते हैं।
- कांवड़ मार्ग को विशेष रूप से सजाया जाता है, और कई स्थानों पर सेवा शिविर, भोजन, दवाइयों और रुकने की व्यवस्था की जाती है।
प्रशासनिक तैयारी और सुरक्षा व्यवस्था
हर साल लाखों की संख्या में श्रद्धालु कांवड़ यात्रा में भाग लेते हैं, इसलिए राज्य सरकारें विशेष सुरक्षा और यातायात प्रबंधन की व्यवस्था करती हैं।
- पुलिस बल की तैनाती
- CCTV कैमरे
- मेडिकल कैंप
- महिला सुरक्षा के लिए विशेष दल
- ट्रैफिक डायवर्जन
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