दिनेश शर्मा ।।
जब कोई युवा किसी प्रतिष्ठित संस्थान से प्रोफेशनल कोर्स कर नौकरी की तलाश में निकलता है, तो दो बातें होती हैं या तो उसे नौकरी नहीं मिलती या फिर मिल जाती है। अगर नहीं मिलती तो अलग बात है लेकिन नौकरी मिलने का मतलब है, लाइफ सेट! इक्कीसवीं शताब्दी के इस दूसरे दशक में छोटी से छोटी कंपनी में भी काम करने पर कम से कम 15,000 तनख्वाह मिल ही जाती है। बस कुछ अपवादों को छोड़ दें तो, इसे विडंबना कहूं या व्यंग्य लेकिन देश में हर रोशनी का अलख जगाने वाले, लोकतंत्र को जीवित रखने वाले, दबे-कूचलों की आवाज़ उठाने वाले हमारे मीडिया संस्थान भी इस अपवाद का हिस्सा हैं। इसे दिया तले अंधेरा कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। अधिकारों, मैलिक कर्तव्यों की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले इन मीडिया संस्थानों की ये सबसे कड़वी सच्चाई है। एक ऐसा पहलू जिससे ज्यादातर लोग अनभिज्ञ हैं।
आप कल्पना कर सकते हैं? किसी बड़े से प्रोफेशनल डिग्री कॉलेज में लाखों खर्च करने के बाद जब आप नौकरी ढूंढने निकले, तो आपको इंटर्नशिप के नाम पर महीनों घिसा जाए। वो भी बिना किसी तनख्वाह के और इसमें हैरानी वाली कोई बात नहीं कि ये महीने साल में भी बीत सकते हैं। ये दुःस्वप्न मीडिया जगत की हकीकत है। जिसे हजारों युवा जीते हैं। वो भी सिर्फ एक दस हजार की नौकरी के लिए। दस हजार का ये आंकड़ा उन चैनलों का है जो नंबर 4, 5 या 6 की कुर्सियों पर विराजमान हैं। जहां गार्डों की तनख्वाह एक डिग्रीथारी युवा से ज्यादा होती है। इन मीडिया संस्थानों में ऐसे चैनलों की भी कमी नहीं है जहां शुरुआत 4000 रुपये से होती है। जिससे ज्यादा एक मजदूर 10 दिनों में 8 घंटे काम करके कमा लेता है। लेकिन इन छोटे चैनलों में ना तो काम के घंटे फिक्स हैं और ना छुट्टियां। अगर महीने में कोई बिना छुट्टी के 30 दिन लगातार काम करे तो कोई हैरानी वाली बात नहीं। जो लोग टीवी 100 जैसे चैनलों में काम कर चुके हैं वो इससे बखूबी इत्तेफाख रखते होंगे।
किसी क्षेत्र में आप छोटी कंपनियों में काम कर अपना परिवार पाल सकते हैं लेकिन मीडिया में अगर आप छोटे चैनल में काम करते हैं तो खुद तक को पालना बेहद मुश्किल है। परिवार की सोचना, खुली आंखों से सपने देखने जैसे है। हालांकि शीर्ष के चुनिंदा चैनलों में जिंदगी थोड़ी आसान है।
ये देश का शायद इकलौता ऐसा सेक्टर है जहां कब आपकी नौकरी चली जाए कोई नहीं जानता और निकाले जाने के बाद नई नौकरी की तलाश मेें चप्पलें घिस जाती हैं। उसके बाद भी पिछले स्केल पर तन्ख्वाह मिल जाए तो सितारे बुलंद समझिए जनाब!
टीवी इंडस्ट्री के छोटे से दौर में ना जाने कितनी बार दर्जनों की संख्या में कर्मचारियों को बिना किसी नोटिस के नौकरी से निकाल दिया गया। साल 2013 आईबीएन से 320 मीडियाकर्मी आउट, मंदी के दौर में एनडीटीवी से एक मुश्त सैंकड़ों की संख्या में मीडियाकर्मी आउट, लेकिन ना तो कोई सवाल पूछने वाला और ना कोई जवाब देने वाला। हर तरफ सिर्फ शांति क्योंकि सब ठीक है। आज आप पार्टी का तमगा लेकर जीना के अधिकारों की बात करने वाले, ये वहीं आशुतोष हैं जो उस दौर में आईबीएन के एडिटर इन चीफ हुआ करते थे। रवीश भाई का एनडीटीवी में तब भी एक बड़ा औदा था लेकिन तब ना तो किसी ने ब्लॉग लिखा ना ब्रेकिंग चलाई गई। खैर, ये तो पुरानी बातें हैं। आज भी कई चैनलों में महीनों-महीनों लोगों को तनख्वाहें नहीं मिलती। कहीं तनख्वाह मांगने पर कर्मचारी को पीटा जाता है तो कहीं बाहर का दरवाजा दिखा दिया जाता है। सिर्फ इस उम्मीद में नौकरी करिए की कभी पैसा मिलेगा…
सहारा प्रबंधन में लंबे समय से दर्जनों की संख्या में पत्रकार अपने हक के लिए आवाज़ें लगा रहे हैं लेकिन टीवी जगत के सितारे मौन हैं। सवाल है आखिर क्यों? देश में घटने वाली हर घटना पर ताल ठोकने की बात करने वाले एनडीटीवी से हाल ही में 36 कैमरामैन निकाले गए, सहारा से करीब 40 लोगों की छुट्टी कर दी गई, मीडियाकर्मी या कहूं मीडिया पीड़ितों ने तब भी आवाज़ उठाई थी और अब भी अब उठा रहे हैं लेकिन इन खबरों को कहीं जगह नहीं मिलती। आखिर क्यों?
लिखना को अभी बहुत कुछ है…लेकिन राजेश खन्ना की फिल्म अमर प्रेम के एक गीत की कुछ पंक्तियों के साथ अपनी लेखनी को यहीं विराम देता हूं…
मज़धार में नैय्या डोले, तो माँझी पार लगाये,
माँझी जो नाव डुबोये उसे कौन बचाये..