https://www.youtube.com/watch?v=YDqnPX3hhKk
हां कलम हूँ मैं, सच लिखती थी मैं,
झुका न पाता था कोई बहाव को मेरे
रोक न पाता था कोई उन हाथों को,
जो चलाते थे मुझे।
लेकिन अब झुकती हूँ मैं,अब रुकती हूँ मैं।
अब चलती नहीं नाचती हूँ मैं।
अब इधर-उधर स्याही नहीं छोड़ती मैं,
बस आंखे मूंद सीधी और सपाट चलती हूं मैं
पर इसमें कसूर मेरा नहीं,
मुझमें स्याही रिश्वत की जो डाली है मालिक ने मेरे
मैं तो वही कलम हूँ, सच लिख दूंगी,
तुम अपनी स्याही डाल कर तो देखो…
रचना- अजय चौधरी
