अजय चौधरी।।
मायावती इस्तीफा देने ही राज्यसभा में आई थी, अगर ऐसा कहा जाए तो गलत न होगा। क्योंकी 2018 में उनकी सदस्यता वैसे ही समाप्त हो रही है। मायावती के दोबारा राज्यसभा सदस्य बनने का भी चांस नजर नहीं आता। क्योंकी उनके पास कुल 19 विधायक हैं जिनके बलबूते वे दोबारा राज्यसभा सदस्य नहीं बन सकती। ऐसे में मायावती ने दलित कार्ड खेला और दलितों की आवाज को दबाने का आरोप लगाते हुए अपना तीन पन्नों का इस्तीफा तीन मिनट में सौंप दिया।
हालाकिं मायावती ये पहले ही साफ कर चुकी हैं कि वो बेहद खुश हैं कि राष्ट्रपति कोविंद बने या मीरा मगर एक दलित देश का राष्ट्रपति बनेगा। जिससे बाबा सहाब का सपना साकार होगा। मायावती को लग रहा है कि उनके इस्तीफे से दलितों में उनके प्रति हमदर्दी पैदा होगी। इस्तीफा देते समय मायावती ने सहारनपुर हिंसा से लेकर दलितों पर हुए अत्याचार के अनेकों किस्से भी बयां किए। जिससे साफ जाहिर है मायावती इस्तीफे का कार्ड खेलकर अपनी दलित राजनीति को फिर से जिंदा करना चाहती है।
क्योंकि हाल ही में हुए यूपी विधानसभा चुनााव में दलितों ने भाजपा को वोट देकर मायावती को एक बडा झटका दिया था। 2014 के लोकसभा चुनाव में तो मायावती अपना खाता भी नहीं खोल पाई थी। कहना गलत न होगा कि मोदी की सुनामी में मायावती पार्टी सहित बह गई। बात राष्ट्रपति चुनाव की करें तो भाजपा ने राष्ट्रपति पद के लिए एक दलित उम्मीदवार उतार कर ऐसा कार्ड खेला कि विपक्ष तक विरोध न कर सका। ऐसे में विपक्ष की भी दलित उम्मीदवार मैदान में उतारना मजबूरी बन गई थी। ऐसे में विपक्ष ने मीरा कुमारी को चुना।
हालाकिं अनुभव के मामले में मीरा कुमारी कोविंद से काफी आगे हैं, जहां मीरा कुमारी तीन बार सासंद और लोकसभा अध्यक्ष रह चुकी हैं वहीं कोविंद ने कभी चुनाव लडा ही नहीं। लेकिन साफ छवी और दलित होने के नाते उन्होंने राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी में भाजपा के बडे नेताओं को भी पछाड दिया और इसके सहारे भाजपा ने बिहार में जेडीयू को अपनी तरफ खीचनें का दांव भी चला। तभी तो नितिश भी इसका विरोध न कर सके और कोविंद को अपना समर्थन देने का ऐलान कर दिया। भाजपा के उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार वैंकया नायडु भी इस पद के लिए उपयुक्त और मोदी की पसंद दोनों थे मगर दलित कार्ड की वजह से उन्हें उपराष्ट्रपति पद से संतोष करना पडेगा और वो राष्ट्रपति के भीतरी सलाहकार के रुप में अहम भूमिका निभा सकते हैं।
मायावती के पास इस स्थिती में दोनों उम्मीदवारों के विरोध करने का कोई चारा नहीं था। क्योंकि विरोध करने का मतलब था दलित विरोध होना। ऐसे में मायावती का इस्तीफा देकर ही दलितों की सहानूभूति हासिल कर सकती थी। तो उन्होंने वो ही किया जो उनके लिए सही था।