शैलेश शर्मा
उदंडता, उन्माद और गुंडागर्दी को स्थान बिल्कुल नहीं मिलना चाहिए चाहे कावड़ हो, शबे बरात हो या नेताओं द्वारा किए आंदोलन में हिंसा तोड़ फोड़ आगजनी हो।
“धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो
ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटा कर देखो” –
“निदा फाजली”
एसी कमरों में बैठकर अंग्रेज़ी भाषा के विदेशी एक्सेंट वालों की नसों में खून का रंग ना तो शेक्सपीयर का है और ना ही कालिदास का। इनकी शख्सियत को खंगाल के देखा जाए तो खनक के सामने घुंघरू भी शर मचा जाएंगे। ऐसे पत्रकारों से कांवड़ की समीक्षा रटे रटाए चंद शब्दो से ही होती है।
नंगे पैरों पैदल चल के हजारों किलोमीटर (हरिद्वार से पुष्कर) या (गोला कोरणनाथ से हरिद्वार) लगभग 1000 किलोमीटर कंधे पे 10 से लेकर 20 लीटर तक जल को लाद के मंदिर में चढ़ाना होता है ! ये यात्रा कईं दिनों में पूरी होती है। रात को कांवड़ जमीन पर नहीं रखी जाती है।
एक घटना दिल्ली के मोती नगर की है जिसमें आरोप है कि कार वाले ने टक्कर मार कर उस कांवड़िए का जल गिरा दिया। बजाय माफी मांगने के युवक ने उस कांवड़िए के जोरदार थप्पड़ रसीद कर दिया। क्या ऐसे में कांवड़िया को गुस्सा नहीं आएगा? एक तो उसकी तपस्या भंग कर दी जो कि पैदल चलते चलते पैरों मै छाले का दर्द सहा नहीं जाता। ऊपर से उसके पैर की सुजन से घावों का पता नहीं चलता ऐसे में कांवड़ियों को गुस्सा नहीं आएगा तो क्या वो संविधान की माला जपेगा। जब सब कुछ चला जाए तो उस समय नैतिकता काम नहीं करती यह मानवीय गुण या अवगुण कह लीजिए।
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जैसे ही कांवड़ जा नाम आता है वैसे ही उद्दंड गुंडे मवाली का संबोधन शुरू हो जाता है कुछ एंकर अपनी नाक फूला के तो कुछ सर को झटका देके कांवड़ियों को किन किन शब्दों की संज्ञा देते है खासकर कुछ न्यूज चैनल और कुछ पत्रकार जो स्वघोषित ईमानदार है उन्होंने ने कांवड़ियों, सावन और सनातन धर्म को ही टारगेट करना होता है क्योंकि वो वामपंथ के उद्धारक जो ठहरे इसलिए उनको शबे बरात की उदंडता कुछ नहीं दिखती भले ही वो इंडिया गेट पर क्यों ना हो।
ये भी सही है कि कुछ असामाजिक तत्व कांवड़ियों के भेष में आ जाते है जो राजनीतिक दलों द्वारा प्रायोजित होते है जैसे राम नवमी के जुलूस में आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने तलवारें लहराई थी जिससे कि माहौल बिगड़े और हिन्दू मुस्लिम हो सके क्योंकि वोट बैंक का फंडा जो है। इस खुलासे को कुछ न्यूज चैनल ने किया था लेकिन कुछ न्यूज चैनल नहीं किया।
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कांवड़ियों को भी समझना होगा कि शिव की भक्ति किसी दूसरे को परेशान करना नहीं है भक्ति वो होती है जिसमें सबकी खुशी और सम्मान हो चाहे वो किसी भी धर्म का हो या जाति का हो। दूसरा महत्वपूर्ण ये है कि जो रूट जिला प्रशासन और राज्य सरकारों ने निर्धारित किया उसी रूट को कावंडिया प्रयोग करें क्योंकि बहुत से युवा युवती (जो ना कालिदास को समझते हो और शेक्सपीयर को) शराब पीकर गाड़ी चलाते है वो कांवड़ की परिभाषा को नहीं जानते सिर्फ उनको खनक समझ आती है।
अब सवाल पत्रकारिता की परीक्षा का है शबे बरात के जुलूस में बहुत से युवाओं ने इकट्ठे होकर इंडिया गेट पर उदंडता की थी वो भी रात में इस घटना को एक दो चैनल को छोड़कर किसी भी चैनल और एक आध न्यूज पेपर छोड़कर किसी भी न्यूज चैनल और न्यूज पेपर ने वरीयता नहीं दी थी। क्यों भाई कांवड़िए पर प्रश्न चिन्ह लग सकता तो शबे बरात पर क्यों नहीं। AC न्यूज से स्वघोषित ईमानदार डिजाइनर पत्रकारों को सोचना होगा। एक बार धूप में नंगे पैरों चल के देखना होगा तब पता चलेगा कि कांवड़ क्या होती है।
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जिग्नेश मैवानी और उमर खालिद के आंदोलन से पुणे में हिंसा आगजनी सरकारी संपत्ति को नुक्सान पहुंचा या गया । जिग्नेश मेवनी और उमर खालिद को गुंडा मवाली और असामाजिक तत्व क्यों भी बोला गया ? जितना पूरे सावन में कांवड़िए उत्पात नहीं करते उससे ज्यादा तो जिग्नेश और उमर खालिद ने पूरे महाराष्ट्र में आग लगा दी नुकसान कर दिया और जन माल की भी हानि हुई थी। क्या उनको संविधान नैतिकता का पाठ क्यों नहीं पढ़ाया गया जबकि जिग्नेश मेवानि तो विधायक भी है उनको उन शब्दों की संज्ञा क्यों नहीं दी जाती तो कांवड़ियों को दी जाती है ?
कांवड़िए , शबे बरात और जिग्नेश, उमर खालिद के आंदोलन से हुई हिंसा आगजनी तोड़फोड़ सब हुई पर कावड़ियों को गुंडा मवाली, असामाजिक तत्व से नवाजा जाता है उन्हें नैतिकता की दुहाई दी जाती है पर शबे बरात और जिग्नेश , उमर खालिद की हिंसा और तोड़फोड़ को क्लीन चिट दी जाती है। इन पर पत्रकारिता सवाल क्यों नहीं करती?
“ये लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में सभी सूचनाएं लेखक द्वारा दी गई हैं, जिन्हें ज्यों की त्यों प्रस्तुत किया गया हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति दस्तक इंडिया उत्तरदायी नहीं है।”