आओ तुम्हें एक किस्सा सुनाता हूँ,
वो कब मिली थी ये दिन बताता हूँ,
वो कब मिली थी ये दिन बताता हूँ,
धीरे धीरे ही सही चलो पर्दा हटाएं,
कितना सताया उसने मुझे आओ ये बताएँ,
कितना सताया उसने मुझे आओ ये बताएँ,
इश्क़ कम्बख़त एक ऐसी बीमारी है ,
जिसका कोई मर्ज तक ना था,
जिसका कोई मर्ज तक ना था,
हर हक़ीम ने इसे लाइलाज बताया है,
पलकें तक नहीं झपकाते थे जब वो सामने होती थी,
सुबह से शाम और शाम से रात होती थी,
सुबह से शाम और शाम से रात होती थी,
मेरे छज्जे से उसका छज्जा मिलता था,
इसी बहाने हमारा दिल और पिघलता था,
इसी बहाने हमारा दिल और पिघलता था,
है हक़ीक़त उसके इंतज़ार में हम ख़ूब तड़पते थे,
उसके दीखते ही, हम कुछ भी ना कहते थे,
उसके दीखते ही, हम कुछ भी ना कहते थे,
इश्क़ क्या होता है इस इश्क़ ने समझाया था,
उसने और हमने इस रिश्ते को ख़ूब निभाया था,
भले ज़ुबाँ से एक लफ्ज़ ना बोले कभी,
पर दिल से दिल को ख़ूब मिलाया था…
उसने और हमने इस रिश्ते को ख़ूब निभाया था,
भले ज़ुबाँ से एक लफ्ज़ ना बोले कभी,
पर दिल से दिल को ख़ूब मिलाया था…
कई दफ़ा हम साथ घूमने ना जाने कहाँ कहाँ नहीं गये,
पर मोहब्बत इतनी पाक थी,
कि हमनें कभी एक दूसरे को छुआ तक नहीं ,
पर मोहब्बत इतनी पाक थी,
कि हमनें कभी एक दूसरे को छुआ तक नहीं ,
यूँ ही क़रीबन 8 साल बीत गए,
दिल धड़कते रहे, वक़्त चलता रहा,
दिल धड़कते रहे, वक़्त चलता रहा,
हम नज़रों से, बातों से,
वादों से, मुलाकातों से,
और क़रीब आते गये…
वादों से, मुलाकातों से,
और क़रीब आते गये…
इस तरह इस किस्से की ख़बर अब अखबारों में आने लगी थी,
छुटकी अम्मा से और अम्मा बापू को सब कुछ बताने लगी थीं,
छुटकी अम्मा से और अम्मा बापू को सब कुछ बताने लगी थीं,
ये हाल दोनों तरफी का था,
आग दिलों में धधकने लगी थी,
आग दिलों में धधकने लगी थी,
सच में ये उस दौर की मोहब्बत थी जब ख़त चला करते थे,
एक एक ज़वाब आने में कई कई दिन लगा करते थे…
एक एक ज़वाब आने में कई कई दिन लगा करते थे…
मानो सब कुछ ठहर सा जाता था,
एक झलक से दिन सँवर सा जाता था,
वो किसी ना किसी बहाने से घर से निकल ही आती थी
और मैं भी चौराहे पर वक़्त रहते पहुँच ही जाता था,
एक झलक से दिन सँवर सा जाता था,
वो किसी ना किसी बहाने से घर से निकल ही आती थी
और मैं भी चौराहे पर वक़्त रहते पहुँच ही जाता था,
ना जाने क्यों कब और कैसे ये हुआ,
बंदिशों का अचानक दौर शुरू हुआ,
फ़तवे निकलने लगे रोज़ हमारे ख़िलाफ़,
उनसे होने वाली मुलाकातों पर,
फ़तवे निकलने लगे रोज़ हमारे ख़िलाफ़,
उनसे होने वाली मुलाकातों पर,
मुहल्ले में ये ख़बर अब आग सी फैल रही थी,
मानो सबकी ज़ुबाँ पर एक ही बात बोल रही थी,
मानो सबकी ज़ुबाँ पर एक ही बात बोल रही थी,
आओ तुम्हें एक किस्सा सुनाता हूँ,
वो कब मिली थी ये दिन बताता हूँ,धीरे धीरे ही सही चलो पर्दा हटाएं,
कितना सताया उसने मुझे आओ ये बताएँ,इश्क़ कम्बख़त एक ऐसी बीमारी है ,
जिसका कोई मर्ज तक ना था,हर हक़ीम ने इसे लाइलाज बताया है,पलकें तक नहीं झपकाते थे जब वो सामने होती थी,
सुबह से शाम और शाम से रात होती थी,मेरे छज्जे से उसका छज्जा मिलता था,
इसी बहाने हमारा दिल और पिघलता था,है हक़ीक़त उसके इंतज़ार में हम ख़ूब तड़पते थे,
उसके दीखते ही, हम कुछ भी ना कहते थे,इश्क़ क्या होता है इस इश्क़ ने समझाया था,
उसने और हमने इस रिश्ते को ख़ूब निभाया था,
भले ज़ुबाँ से एक लफ्ज़ ना बोले कभी,
पर दिल से दिल को ख़ूब मिलाया था…कई दफ़ा हम साथ घूमने ना जाने कहाँ कहाँ नहीं गये,
पर मोहब्बत इतनी पाक थी,
कि हमनें कभी एक दूसरे को छुआ तक नहीं ,यूँ ही क़रीबन 8 साल बीत गए,
दिल धड़कते रहे, वक़्त चलता रहा,हम नज़रों से, बातों से,
वादों से, मुलाकातों से,
और क़रीब आते गये…इस तरह इस किस्से की ख़बर अब अखबारों में आने लगी थी,
छुटकी अम्मा से और अम्मा बापू को सब कुछ बताने लगी थीं,ये हाल दोनों तरफी का था,
आग दिलों में धधकने लगी थी,सच में ये उस दौर की मोहब्बत थी जब ख़त चला करते थे,
एक एक ज़वाब आने में कई कई दिन लगा करते थे…मानो सब कुछ ठहर सा जाता था,
एक झलक से दिन सँवर सा जाता था,
वो किसी ना किसी बहाने से घर से निकल ही आती थी
और मैं भी चौराहे पर वक़्त रहते पहुँच ही जाता था,ना जाने क्यों कब और कैसे ये हुआ,बंदिशों का अचानक दौर शुरू हुआ,
फ़तवे निकलने लगे रोज़ हमारे ख़िलाफ़,
उनसे होने वाली मुलाकातों पर,मुहल्ले में ये ख़बर अब आग सी फैल रही थी,
मानो सबकी ज़ुबाँ पर एक ही बात बोल रही थी,फिर भी रोककर ख़ुद को,
कई बार रोका मैंने उसे,
लाख कोशिशें कीं पर कभी कुछ कहा नहीं,एक शाम अचानक से ना जाने किसी काम से शहर जाना पड़ा,
लौटकर देखा तो मोहब्बत का आशियाना जल चुका था,मेरे इस किस्से को जला कर लोग हँस रहे थे,
मुझे यकीं तक ना था कि छोड़कर तुम यूँ चली जाओगी,
पर हाँ भरोसा है लौट कर वापस एक दिन ज़रूर आओगी……रचना- उदितकवि परिचय- दिल की बातों को दूसरे के दिलों तक पहुंचाने की कोशिश करते युवा कवि विनय रावत “उदित” नाम से लिखते हैं और अपनी भावनाओं को कलम से कागज़ पर उतारने का प्रयास करते हैं। 22 सितंबर 1991 को बुंदेलखंड के छत्तरपुर ज़िले में जन्में उदित का प्रारंभिक शिक्षा के समय से ही हिन्दी में रुची रखने के कारण कविताओं के प्रति खासा लगाव रहा और अब वो नियमित तौर से कविताएं, लेख और शेरो-शायरियां लिखते रहते हैं।शिक्षा- एम.ए (जनसंचार एंव पत्रकारिता)व्यवसाय- दिल्ली दूरदर्शन में बतौर एंकर कार्यरत© ये रचनाएं कोपीराईट के अधीन हैं, बिना अनुमति इनका प्रकाशन या उपयोग वर्जित है।
फिर भी रोककर ख़ुद को,
कई बार रोका मैंने उसे,
लाख कोशिशें कीं पर कभी कुछ कहा नहीं,
कई बार रोका मैंने उसे,
लाख कोशिशें कीं पर कभी कुछ कहा नहीं,
एक शाम अचानक से ना जाने किसी काम से शहर जाना पड़ा,
लौटकर देखा तो मोहब्बत का आशियाना जल चुका था,
लौटकर देखा तो मोहब्बत का आशियाना जल चुका था,
मेरे इस किस्से को जला कर लोग हँस रहे थे,
मुझे यकीं तक ना था कि छोड़कर तुम यूँ चली जाओगी,
पर हाँ भरोसा है लौट कर वापस एक दिन ज़रूर आओगी……
मुझे यकीं तक ना था कि छोड़कर तुम यूँ चली जाओगी,
पर हाँ भरोसा है लौट कर वापस एक दिन ज़रूर आओगी……
बहुत खूब उदित सर । बनारसी इश्क़ की खुशबू बखूबी आ रही है कविता में ।
शुक्रिया चेतन