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Dastak India > Home > विचार > विचार: न कोई पढ़ना चाहता है और न कोई पढ़ाना, 12 वीं के बाद शुरु होती है असल समस्या
विचारहोम

विचार: न कोई पढ़ना चाहता है और न कोई पढ़ाना, 12 वीं के बाद शुरु होती है असल समस्या

dastak
Last updated: November 13, 2019 12:11 pm
dastak
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students studying in college
कॉलेज में पढ़ते छात्र, तस्वीर केवल प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल की गई है।
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अजय चौधरी

ajay chaudhary chief editor dastak india
Photo- Ajay Chaudhary

 कुछ संस्थानों को छोड़ दें तो सच यही है कि न तो कोई पढ़ना चाहता है और न कोई पढ़ाना। देश में बहुत से अच्छे स्कूल आज भी हैं, जहां 12 वीं तक अच्छी शिक्षा दी जाती है। इनमें कई मंहगी फीस वाले कान्वेंट स्कूल भी हैं। लेकिन असल समस्या शुरू होती है 12 वीं के बाद। देश का हर युवा जेएनयू, डीयू या इंजीनियर बनने के लिए आईआईटी में दाखिला नहीं ले सकता। एक अच्छे स्कूल से 12वीं करके निकले छात्र को आगे की पढ़ाई के लिए अपने स्कूल के दर्जे के कॉलेज नहीं मिल पाते। वो अंधों में काना राजा छांट लेता है। स्कूल में से जो सारी अच्छी आदतें वो लेकर यहां आया था वो पहले ही सेमेस्टर तक खत्म हो चुकी होती हैं, पढ़ना तो दूर की बात है। ये एक साधारण छात्र की बात है।

दूसरी तरफ कान्वेंट स्कूल वाले के सपने स्कूल की सुविधाओं के साथ उड़ान भरते हैं। वो ऐसा कॉलेज नहीं चाहता जो उजड़ा चमन लगे। इसलिए उसके पास ऑप्शन बचता है प्राइवेट यूनिवर्सिटी का, जहां बड़ी बिल्डिंग के साथ फीस भी बड़ी होती है। यहां वो दोस्तों के सहारे 3 साल काट तो लेता है लेकिन प्रोडक्टिव कुछ निकलता नहीं है। पिताजी का धंधा है तो डिग्री घर के किसी कोने में डाल उसी में सेट हो जाता है। जिसका धंधा नहीं है वो इन धंधे वालों से लाखों की डिग्री ले सड़क सड़क भटकता है। नौकरी 15000 की मिले तो वो भी बड़ी बात है, लेकिन इतने पैसे खर्च करके वो इतने सस्ते में काम नहीं करना चाहता। इनमें अच्छा वो रह जाता है जो पढ़ने देश से बाहर चला जाता है और फिर वापस आने का प्लान नहीं बनाता। बनाता है तो यहां वापस आकर अपने आप को ढाल नहीं पाता। बहुत से मां बाप अब अपने बच्चों को बाहर भेजने से डरने लगे हैं क्योकिं वो उन्हें खोना नहीं चाहते। लेकिन अपने देश में उन्हें बेहतर शिक्षा संस्थान भी तो नहीं दिखाई देते।

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साधारण कॉलेज वाले को या तो 10,000 की नौकरी मिलती है या फ्री में ट्रेनिंग। मेरे हिसाब से इन्हें 10 से 15 हजार की नौकरी भी कंपनियों को देना छोड़ देना चाहिए और संस्थानों से पूछना चाहिए कि आपने बच्चों को सीखा कर क्या भेजा है। बस यहीं से शुरू होती है असल समस्या। न हमारे संस्थान और न हमारे कोर्स उस तरह के हैं कि छात्र इतने दक्ष बन जाएं कि उन्हें तुरंत नौकरी मिल जाए। कैम्पस प्लेसमेंट शब्द केवल एक छलावा है। हम वो सीख ही नहीं रहे जो बाजार की जरूरते हैं। बाजार भी परेशान है वो नौकरी देना चाहता है लेकिन उस कागज का वो क्या करे जिसपर कुछ लिखा ही नहीं। अच्छी कंपनियों ने इसका रास्ता ट्रेनिंग नाम से खोजा है जिसमें साल भर के करीब छात्रों वो अपने पास रखकर काम करना सिखाते हैं और गुजारे के लिए कुछ पैसे भी देते हैं। इस दौरान रिश्तेदार पूछ रहे होते हैं कि कितने लाख का पैकेज है? बेचारा ट्रेनिंग वाला जवाब दे भी तो क्या?

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हमें जेएनयू को देशद्रोही का तमगा दे उसे बंद करने की जरूरत नहीं है बल्कि उस जैसे अच्छे और सस्ते संस्थान पूरे देश में खोलने की जरूरत है। हमें वक्त और बाजार की जरूरतों के हिसाब से स्किल से संबंधित नए कोर्स कराने चाहिए ताकि छात्र ट्रेनिंग कॉलेज में ही पूरी कर ले और कंपनियों को पका पकाया माल मिले। बहुत से स्किल संस्थान खुले हैं लेकिन इनकी संख्या बहुत कम है और ये संसाधनों की भारी कमी से जूझ रहे हैं, हर क्षेत्र में छात्रों को दक्ष बनाने के लिए इन्हें बेहतर मशीनरी की जरूरत भी है। मैनेजमेंट के छात्रों के लिए हमें अपनी किताबें भी बदलने की जरूरत है। क्योकिं अब छात्र उन्हें लाइब्रेरी से जारी नहीं करवाना चाहते। वो किताब की दुकान से गाइड खरीद कर ही अपनी परीक्षा देते हैं। ये पढ़ने वालों की स्तिथि है और जो पढ़ना नहीं चाहते वो तो केवल घोड़ी चढ़ने के लिए ही दाखिला लेते हैं। ब्याह हो जाने पर मकसद पूरा हो जाता है और फिर वो अपने घर। जो पढ़ना चाहते हैं उन्हें भी कॉलेज में अपने लायक कुछ मिलता नहीं है और वो यहां अपने साल फिजूल में व्यर्थ कर रहे होते हैं। प्रोफेसर जो पढ़ाना चाहते हैं वो राजनीति का शिकार हैं और बाकियों को तो सैलरी समय पर मिल रही है तो वो अपना माथा क्यों मारे?

TAGGED:ajay chaudharycollegesDueducationeducation system in indiaJNUread aboarduniversities in indiaअजय चौधरीभारत में शिक्षा व्यवस्था
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