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हां कलम हूँ मैं, सच लिखती थी मैं,
झुका न पाता था कोई बहाव को मेरेरोक न पाता था कोई उन हाथों को,
जो चलाते थे मुझे।लेकिन अब झुकती हूँ मैं,अब रुकती हूँ मैं।
अब चलती नहीं नाचती हूँ मैं।अब इधर-उधर स्याही नहीं छोड़ती मैं,
बस आंखे मूंद सीधी और सपाट चलती हूं मैंपर इसमें कसूर मेरा नहीं,
मुझमें स्याही रिश्वत की जो डाली है मालिक ने मेरेमैं तो वही कलम हूँ, सच लिख दूंगी,
तुम अपनी स्याही डाल कर तो देखो…रचना- अजय चौधरीकवि परिचय- अजय चौधरी पेशे से पत्रकार हैं। लेकिन उनकी लेखनी में भी कवि हद्य झलक ही जाता है। जब दिल खुश होता है तो कविताएं भी लिख लेते हैं। 20 जुलाई 1991 को उत्तरप्रदेश के शामली जिले में जन्मे अजय की प्रारंभिक शिक्षा हरियाणा के फरीदाबाद में ही हुई। व्यवसायी परिवार होने के बावजूद अजय ने लेखन को ही अपना पेशा चुना। ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो शौक को ही अपना पेशा बना लेते हैं। उन्हीं में से अजय एक हैं जो कहते हैं “मुझे वो महफिल नहीं चाहिए जो पैसे से सजी हो”।शिक्षा- एम.ए (जनसंचार एंव पत्रकारिता)व्यवसाय- ऑनलाईन न्यूज चैनल दस्तक इंडिया के मुख्य संपादक के तौर पर कार्यरत© ये रचनाएं कॉपीराइट के अधीन हैं, बिना अनुमति इनका प्रकाशन या उपयोग वर्जित है।
हां कलम हूँ मैं, सच लिखती थी मैं,
झुका न पाता था कोई बहाव को मेरे
झुका न पाता था कोई बहाव को मेरे
रोक न पाता था कोई उन हाथों को,
जो चलाते थे मुझे।
जो चलाते थे मुझे।
लेकिन अब झुकती हूँ मैं,अब रुकती हूँ मैं।
अब चलती नहीं नाचती हूँ मैं।
अब चलती नहीं नाचती हूँ मैं।
अब इधर-उधर स्याही नहीं छोड़ती मैं,
बस आंखे मूंद सीधी और सपाट चलती हूं मैं
बस आंखे मूंद सीधी और सपाट चलती हूं मैं
पर इसमें कसूर मेरा नहीं,
मुझमें स्याही रिश्वत की जो डाली है मालिक ने मेरे
मुझमें स्याही रिश्वत की जो डाली है मालिक ने मेरे
मैं तो वही कलम हूँ, सच लिख दूंगी,
तुम अपनी स्याही डाल कर तो देखो…
तुम अपनी स्याही डाल कर तो देखो…