अजय चौधरी
शहरों में गरीब की जिंदगी अवैध में ही बीतती है, उन छात्रों की भी जो दूर दराज से कुछ बनने का ख्वाब पिरोए नगरों से महानगरों तक का रुख करते हैं। वो शहरों के इतने संकुचित गलियारों में रहते हैं जहां गर्मी की धूप भी ना चटक के खिल सके।
मजदूरों की बस्ती तो और भी गरीब होती है, जहां एक खिड़की भी नसीब नहीं होती। आग लगे तो धुवां भी न निकले। ऐसे में अक्सर मौतें दम घुटने से ही होती हैं।
ऊंची इमारतों वाले शहर में गरीबों की बड़ी बड़ी बस्ती होती हैं जो गांव से भी बदतर होती है। इनके बिना शहर भी अधूरे होते हैं, मजदूर वर्ग यहीं से शहर को अपनी सेवाएं देने निकलता है। वो अपनी तनख्वाह में बहुमूल्य इलाकों में रह भी तो नहीं सकते। बदबू में रहने वाले को समय के साथ बदबू भी भाने लगती है।
आग लगने जैसी घटनाओं के बाद कह दिया जाता है कि फायर एनओसी नहीं थी, अवैध है वगैराह-वगैराह। मालिक को कुछ दिनों के लिए सूली चढ़ा दिया जाता है फिर मामला ठंडा पड़ने पर उतार लिया जाता है।
जुलाई 2018 को नोएडा के सस्ते फ्लैट वाले गांव शाह बेरी की बहुमंजिला इमारतों के मलबे में कई परिवारों की चीखें दब गई थी। वहां के मुजरिमों का आज भी कुछ नहीं हुआ। अवैध बताए जाने वाली ये बस्तियां किसके संरक्षण में बसती हैं? कितने गरीबों को फ्लैट्स बना कर उनमें शिफ्ट किया गया इसपर गौर करता कौन है?
हमें भूलना नहीं चाहिए हाल ही में हमारे प्रधानमंत्री ने दिल्ली की 1797 अवैध कालोनियों का बिना ढांचा बदले वैध किया है। फिर हम दोष सिर्फ उनमें बसने वालों और उन्हें बसाने वालों पर कैसे डाल सकते हैं? लाखों रुपए के मुआवजे से दिल्ली के अनाज मंडी इलाके के 43 मजदूरों की जान और उनके सपने वापस नहीं आ सकते। अंत मे कुछ बाक़ी रह जाता है तो वो है अफसोस, जो चारों तरफ से जताया ही जा रहा है!