हम सब जानते हैं कि समुद्र का रंग नीला क्यों दिखता है—ये बात प्रोफेसर सीवी रमन ने साबित की थी, जिसके लिए उन्हें नोबेल प्राइज भी मिला। लेकिन क्या आपको पता है कि धरती के समुद्र हमेशा नीले नहीं थे? एक नई स्टडी में दावा किया गया है कि अरबों साल पहले समुद्र का रंग हरा (green) हुआ करता था। जी हां, वो नीली चमक जो आज हमें दिखती है, वो कभी हरे रंग की थी। ये खुलासा न सिर्फ हैरान करने वाला है, बल्कि ये भी बताता है कि धरती पर जिंदगी कैसे शुरू हुई।
अरबों साल पहले का समुद्र: हरा और रहस्यमयी
जर्नल Nature Economy & Evolution में छपी इस स्टडी के मुताबिक, करीब 2.4 बिलियन साल पहले Archaean Era में धरती के समुद्र हरे रंग में नहाए हुए थे। उस वक्त पानी में आयरन (iron) की मात्रा बहुत ज्यादा थी। ये आयरन ऑक्साइड पार्टिकल्स, जिन्हें Fe(III) कहते हैं, सूरज की लाल और नीली रोशनी को रोक देते थे। नतीजा? पानी में सिर्फ हरी रोशनी ही पहुंच पाती थी। तो उस जमाने में अगर आप समुद्र किनारे खड़े होते, तो नीला नहीं, बल्कि हरा पानी देखते।
इस स्टडी ने नंबर-क्रंचिंग और सिमुलेशन के जरिए उस पुराने पानी के नीचे की दुनिया को फिर से बनाया। वैज्ञानिकों का कहना है कि ये हरा रंग उस वक्त की जिंदगी के लिए बहुत जरूरी था।

सायनोबैक्टीरिया: धरती के पहले हीरो
अब बात करते हैं सायनोबैक्टीरिया की—ये छोटे-छोटे फोटोसिंथेटिक ऑर्गेनिज्म थे, जिन्होंने धरती को ऑक्सीजन से भर दिया। इसे Great Oxidation Event कहते हैं, जिसने जटिल जिंदगी (complex life) का रास्ता खोला। लेकिन सवाल ये था कि ये छोटे जीव उस हरे पानी में कैसे जिंदा रहे?
इस स्टडी ने जवाब दिया। इन सायनोबैक्टीरिया ने हरी रोशनी को सोखने के लिए खास पिगमेंट्स बनाए, जिन्हें फाइकोबिलिन्स (phycobilins) कहते हैं। ये पिगमेंट्स फाइकोबिलिसोम्स नाम की स्ट्रक्चर में थे—मानो सोलर पैनल्स की तरह, जो हरी रोशनी को बखूबी इस्तेमाल करते थे। यानी ये बैक्टीरिया उस हरे माहौल में सर्वाइव करने के लिए तैयार हो गए थे।
साइंस का जादू: आज के टेस्ट, पुरानी कहानी
वैज्ञानिकों ने इस थ्योरी को चेक करने के लिए कुछ कमाल किया। उन्होंने आज के सायनोबैक्टीरिया को जेनेटिकली इंजीनियर किया और उसमें हरी रोशनी सोखने वाला पिगमेंट—फाइकोएरिथ्रोबिलिन (phycoerythrobilin)—डाला। नतीजा? ये बैक्टीरिया हरी रोशनी में बेहतर तरीके से बढ़ने लगे। ये ठीक वैसा ही था, जैसा अरबों साल पहले नेचुरल सिलेक्शन के जरिए हुआ होगा।

इससे पता चलता है कि आज के सारे सायनोबैक्टीरिया के कॉमन एनसेस्टर (पूर्वज) में भी यही खासियत थी। उस हरे समुद्र ने उन्हें एक खास एडवांटेज दिया था।
जिंदगी और समुद्र का कनेक्शन
ये स्टडी सिर्फ समुद्र के रंग की बात नहीं करती, बल्कि ये भी दिखाती है कि जिंदगी और पर्यावरण (environment) ने एक-दूसरे को कैसे बनाया। सायनोबैक्टीरिया ने ऑक्सीजन बनाकर धरती की हवा को बदला, और उस हरे समुद्र ने इन बैक्टीरिया को ऐसा बनाया कि वो उसमें फलें-फूलें। ये एक खूबसूरत को-एवॉल्यूशन (co-evolution) की मिसाल है।
सोचिए, उस वक्त समुद्र किनारे का नजारा कितना अलग होता। कोई नीली लहरें नहीं, बल्कि हरे पानी की चमक। ये नजारा भले ही आज अजीब लगे, लेकिन यही वो माहौल था जिसमें हमारी जिंदगी की नींव पड़ी।
नीला समुद्र कैसे बना?
तो फिर ये हरा समुद्र नीला कब और कैसे बना? जैसे-जैसे सायनोबैक्टीरिया ने ऑक्सीजन बनाई, पानी में आयरन की मात्रा कम होती गई। ऑक्सीजन ने आयरन को ऑक्सिडाइज कर दिया और वो नीचे बैठ गया। इससे लाल और नीली रोशनी पानी में पहुंचने लगी, और धीरे-धीरे समुद्र का रंग नीला हो गया। प्रोफेसर सीवी रमन ने बाद में बताया कि ये नीला रंग लाइट स्कैटरिंग की वजह से है। लेकिन उससे पहले की कहानी ये स्टडी बयां करती है।

हमारे लिए क्या मतलब?
ये खोज सिर्फ साइंस की किताबों के लिए नहीं है। ये हमें याद दिलाती है कि हमारी धरती कितनी बदल चुकी है और हमारी जिंदगी इसके साथ कैसे ढलती आई है। आज हम नीले समुद्र को देखकर खुश होते हैं, लेकिन उस हरे समुद्र ने ही हमें यहां तक पहुंचाया।
तो अगली बार जब आप समुद्र किनारे जाएं, उस नीले पानी को देखें और सोचें—कभी ये हरा था, और उस हरियाली में छुपी थी हमारी शुरुआत।